"मेरा जीवन,क्या यह जीवन
कैसी यह बेचैनी है
सांझ समझ ना सुबह समझ
कैसी यह सरगोशी है
"ग्रहण" का पहरा है जीवनब
ना कोई उन्माद है
ना कोई बासन्ती हवा है
ना कोई सम्वाद है
एक प्रहर की अंतिम बेला
यह कैसा संजोग है
इस जीवन की" ग्रहण"-कथा
ना अब कोई मेल है
जीवन है उन्मुक्त पवन -सा
"ग्रहण" न इसपे लगने देना
मिली जो साँसे जीवन की
खुश हो कर उसको जी लेना"""""
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यह मेरी मौलिक रचना है,,,,,
©डॉ मधुबाला सिन्हा
वाराणसी