पेड़
डरा हुआ था,
उसने देख लिया था,
कि उसकी शाखाओं के बसेरे,
सूने होने लगे हैं।
पेड़
पीड़ित था,
उसने भांप लिया था
उस साजिश को
जिसमें हिकारत थी,
उसके प्रति,
उसके ही नीचे,
खड़े होकर लोग
कह रहे थे,
अब इसे काट देंगे,
यह ठूंठ अब किस काम का?
पेड़,
धबरा गया था,
उसने महसूस किया था,
अपने पैरों के नीचे शुष्कता को,
नदी ,जो उसे दुलराती थी,
उसे छोड़ कहीं और
जाने की तैयारी में थी।
पेड़,
अकेला था।
मिट्टी ने भी छोड़ दिया था साथ,
जड़ें उसकी,
किसी बूढ़े हाथ की,
नीली नसों सी उभर आईं थी,
लुनाई रहित,बेहद कुरूप।
पेड़
खुद पर तरस खा रहा था।
रोने -रोने को हो रहा था।
पर वह जानता था,
कितना बेमानी होगा यह
अरण्य-रोदन।
कौन पोंछेंगा
आंसू उपेक्षित के?
सभी तो लगे थे,
खुद को सँवारने में।
पेड़,
सच्चाई से रूबरू था।
कोई नहीं आएगा,
उसे सींचने,
उसके पास फल नहीं थे।
न ही कोई फूल था,
छाया तक नहीं थी।
पेड़
दर्पण देखने से ,
कतरा रहा था।
रीत जग की गूढ़ यह,
उसे झिंझोड़ रही थी।
कि झूठी आस पर ,
कल की नींव धरना,
ठीक नहीं होता,
भुगतनी ही पड़ती है,
सबको नियति अपनी-अपनी।
पेड़ ,
अब निर्द्वंद्व था।
अपेक्षा -उपेक्षा ,
दुःख और भय से परे,
शुभेच्छा समेटे प्राणों में,
अखिल जगती के प्रति,
तथ्य से अवगत ,
बोध -प्राप्त,
तथागत सा ।
वीणा गुप्त
नई दिल्ली