बेटी का पिता

कविता



 पिता हूंँ मैं एक बेटी का,


 अपना फर्ज निभाऊंगा ।


अपनी बेटी की रक्षा के साथ-साथ 


उसके ख्वाबों को भी बचाऊंगा ।


उसके पंख मैं बनूंगा, 


आसमान की राह में दिखाऊंगा ।


पर चलना उसे अकेले होगा,


 मैं साथ उसके न जाऊंगा ।


चाहता हूंँ मिले वह 


तरह तरह के लोगों से ।


जाने भेद अच्छे बुरे का


 मैं दूर खड़ा मुस्कुराऊंगा।


 मुसीबतों में वह मुझे ना पुकारे ,


अपनी ज़िंदगी खुद सवारे ।


बने स्वयं की रक्षक ,


मैं तो यही चाहूंगा ।


सुना रहा था मैं यह कविता 


आज अपनी बेटी को 


जब उसने पा ली मंजिल


 समझदार हो गई थी मेरी रिमझिम।


बोला मैं लिखी थी मैंने यह कविता ,


जब तुम जन्मी थी।


सार्थक हो गई आज यह कविता,


वह बोली खुशी होती तब


 जब पूछा होता आपने मांँ का ख्वाब ।


वह भी तो है किसी की बेटी,


 उनके पिताजी ने भी सजाए होंगे ख्वाब ।


जवाब नहीं था आज मेरे पास,


 रिमझिम के सवालों का,


 मैंने नम आंखों से ,दौनो को गले से लगाया,


 संसार फिर मेरा भी मुस्कुराया।


दिव्या भागवानी (दिव्य श्वेत)


Popular posts
अस्त ग्रह बुरा नहीं और वक्री ग्रह उल्टा नहीं : ज्योतिष में वक्री व अस्त ग्रहों के प्रभाव को समझें
Image
गाई के गोवरे महादेव अंगना।लिपाई गजमोती आहो महादेव चौंका पुराई .....
Image
पीहू को जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं
Image
ठाकुर  की रखैल
Image
कोरोना की जंग में वास्तव हीरो  हैं लैब टेक्नीशियन
Image