साहित्यिक पंडा नामा:८५९

आज के ब्राह्मण  की भूमिका 



भूपेन्द्र दीक्षित
विश्व   का परिदृश्य  विचित्रताओं से भरा  है।संभवतः  किसी  अन्य  युग  में इतनी  विषमताएं और जटिलताएं नहीं  थीं ।कोई  लीक पर चलने  को प्रस्तुत  नहीं ।हर मान्यता  टूटने  की कगार  पर है।जयशंकर प्रसाद  ने लिखा  था-
प्रकृति  के यौवन का श्रृंगार करेंगे  कभी  न बासी  फूल ।मिलेंगे  वे जाकर अति शीघ्र  आहउत्सुक  है उनको धूल।
तो एक लहर चली  परिवर्तन  की।क्षणे क्षणे यन्नवामुपैति तदैव रूप रमणीयतायाः।इस तर्ज  पर परंपराएं  भूमिसात की जाने  लगीं ।वर्जनाएं तोडी जाने लगीं ।ऐसे  मे ब्राह्मण जो परंपरा प्रिय  था,उसे यह कहकर निषेध  किया  जाने  लगा कि तुम क्यों कि सर्वाधिक  महत्वपूर्ण  रहे हो,इसलिए  परंपराओं  के टूटने  से फडफडा रहे हो।ब्राह्मणत्व का उपहास  प्रारंभ  हो गया ।ब्राह्मण  किनारे  किए जाने  लगे।वे ब्राह्मण  जिनके जीवन का मूलमंत्र था- हो रहा  जो कुछ  जहाँ  वह हो रहा ।यदि वही  हमने  कहा तो क्या  कहा?  किन्तु  होना  चाहिए  कब क्या  कहां? व्यक्त करती  है कला  ही यह यहाँ ।-वे ब्राह्मण  अलगथलग किनारे  पड़ गए।उनकी आवाज  नक्कारखाने में  तूती की आवाज  बन कर रह गई।
ऐसे में  नए पुरोहित  उठे और उन्होंने  समाज  को एक विचित्र  स्वरुप देने  में  कोई कसर नहीं  छोड़ी ।इस आर्य भूमि  पर वैदिक  परंपराओं  का विनाश  प्रारंभ  हो गया और अधकचरी एवं  विदेशी  शिक्षा  प्राप्त  विद्वान  ब्राह्मण  को भारत के लिए  खतरा  बताने  लगे।वह ब्राह्मण  जिसने  भारतीय  संस्कृति  के संरक्षण  हेतु  विदेशियों  के सर्वाधिक  अत्याचार  सहे परंतु अपनी संस्कृति  को मिटाने नहीं  दिया, सबकी  आँख का कांटा हो गया ।उसको गाली  देना फैशन बन गया  और वे  ब्राह्मण  जो अधकचरी  विदेशी  शिक्षा  की देन थे,उनकी हाँ  में हां मिला  कर ब्राह्मणत्व  को कोसने में  आगे  हो गये ।
 वर्तमान परिस्थितियों में भी लोग राजनीतिक रोटियां सेंक लें रहे हैं।ये वही हैं,जिनके कारण कश्मीर में अब तक पंडित मारे जाते रहे,और किसी ने निंदा करने के अलावा कुछ न किया। कुछ लोगों से तो निंदा भी न हुई।
बेचारा ब्राह्मण देशभक्ति के जुनून में अनादिकाल से मर रहा है।कभी उसकी अस्थियों की आवश्यकता होती है,कभी बच्चे दूध को बिलखते रह जाते हैं।कभी राक्षस उसको मिटाने का प्रयास करते हैं,कभी ईसाई और कभी मुस्लिम।धर्म के नाम पर बरसों से बलिदान दे रहा ब्राह्मण सबके निशाने पर रहता है।वह सबकी गाली खाता है। आखिर यह क्रम अबतक चलेगा?
स्मरण रहे कि ब्राह्मण है ,तभी तक भारतीय संस्कृति है।जिस दिन वह न हुआ, संस्कृति का पता नहीं चलेगा।चेत जाओ, भाइयों!
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध।
जो तटस्थ हैं,समय लिखेगा उनके भी अपराध।।
आधुनिक  भारत  के निर्माण  में ब्राह्मणों  का अपरिमित  योगदान  रहा है।साहित्य, विज्ञान, प्रौद्योगिकी,राजनीति, धर्म,पांडित्य आदि  सभी  क्षेत्रों  में ब्राह्मणों  ने अपनी  योग्यता  सिद्ध  की है।समाज  की दूषित  और मृत पर॔पराओं के विरुद्ध  सर्वप्रथम  ब्राह्मण  ने ही आवाज  उठा  कर अपनी  प्रगति शीलता सिद्ध  की है।
अक्सर लोग ब्राह्मण  पर दलित  विरोधी  होने  का आरोप  लगाते  हैं ।मनुद्रोणाचार्य,वशिष्ठ  आदि  ऋषियों  को दलित  अपनी  बदतर स्थिति  के लिए  दोषी  मानते  हैं, चूँकि  वर्ण व्यवस्था  के उच्च  स्थान पर स्थापित ब्राह्मण  वर्ग  के थे अतः  वेऔर उनके  साथ संपूर्ण  ब्राह्मण  समाज दलित साहित्य  में  प्रतिशोध के स्वर में  इस तरह प्रतिध्वनित होते हैं  जैसे लताड भरी गाली  हो।
जबकि  वास्तविकता  यह है कि दलित  वर्ग  की दुर्दशा  पर सर्व प्रथम ब्राह्मण  ने ही आवाज  उठाई ।आधुनिक  काल की सर्व प्रथम दलित  समर्थक कविता 1918 में श्री धर पाठक ने लिखी  थी,जिसका  शीर्षक  था-मनु जी।इस कविता  में मनुऔर मनुस्मृति  का विरोध  सर्वप्रथम  मिलता  है।
इस संबंध  में और शोध करें  तो पता  चलता है1927में
चांद का अछूतविशेषांक  निकला  था,जिसके  स॔पादक पंडित  नंदकिशोर  तिवारी  थे।कई ब्राह्मण  रचनाकारों ने इसमें  दलितों  के समर्थन  में रचनाएँ  दीं।पं -रामचरित उपाध्याय, अयोध्या  सिंह  उपाध्याय, अनूप  शर्मा, चंडीप्रसाद ह्दयेश,रामचंद्र  शुक्ल,रामचरित  उपाध्याय  जैसे प्रतिष्ठित  रचनाकार, सूर्य कान्त त्रिपाठी  निराला वैद्य नाथ मिश्र  नागार्जुन आदि  नाम मेरी  बात को पुष्ट करने  को काफी  हैं  कि ब्राह्मण  सदैव प्रगतिशील  रहा है और समाज  के विकास  में  उसने  अपना रचनात्मक  योगदान  दिया  है।


 सांस्कृतिक रीतियों एवं  व्यवहार  में विविधताओं के  कारण और विभिन्न  वैदिक  विद्यालयों  से उनके  संबंध  के चलते ब्राह्मण  समाज  विभिन्न  उपजातियों में  विभाजित  है।
प्रत्येक  वेद  काअपना सूत्र  है।सामाजिक, नैतिक तथा  शास्त्रानुकूल नियमों  वाले  सूत्रों  को धर्म सूत्र कहते  हैं ।ब्राह्मण  शास्त्रज्ञों में  प्रमुख  हैं -अग्निरस,अपस्तंभ,अत्रि,वृहस्पति,बौधायन,दक्ष,गौतम,वत्स,हरित,कात्यायन,लिखित,मनु,पराशर,समवर्त,शंख,शत्तप,ऊखानस,वशिष्ठ, विष्णु, व्यास,याज्ञवल्क्य और यम।
ये इक्कीस  ऋषि  स्मृतियों  के रचयिता थे।स्मृतियों  में  सबसे प्राचीन  हैं -अपस्तंभ, बौधायन, गौतम तथा  वशिष्ठि।
जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् द्विज उच्यते।
शापानुग्रह सामर्थ्यम तथा  क्रोध  प्रसन्नता ।।
आध्यात्मिक  द्रष्टि से संस्कार विहीन ब्राह्मण  भी शूद्र  के समान होता है।ब्राह्मण  धर्म विरुद्ध  कार्य  नहीं  करते।करें  तो उनमें  और शूद्र  में कोई अन्तर नहीं ।नियमों  की सीमाएँ  अपने लिए  सर्वाधिक  बनाईं मनीषियों ने।ब्राह्मण  सभी  के कल्याण  में  विश्वास  रखते  हैं ।वसुधैव कुटुम्बकम् का सर्वप्रिय नारा ब्राह्मण  का ही दिया हुआ  है।हिन्दू  ब्राह्मण  अपनी  धारणाओं  से अधिक धर्माचरण एवं संस्कारों को महत्व  देते हैं ।ये संस्कार  सोलह हैं ।


आधुनिक  भारत  के निर्माण  में ब्राह्मणों  का अपरिमित  योगदान  रहा है।बाल गंगाधर तिलक, चंद्र शेखर  आजाद, रानी  लक्ष्मी बाई,कालिदास, रवींद्र नाथ टैगोर, वीर सावरकर , मंगल  पांडे, रामप्रसाद  बिस्मिल ,सुभाषचंद्र ,बिनोबा भावे,गोपाल  कृष्ण  गोखले, लक्ष्मी  सहगल, मदन मदनमोहन  मालवीय, महादेव  गोविंद  रानाडे,खुदीराम बोस,चक्रवर्ती  राज गोपालाचारी,बाबा राघव दास,स्वामी  दयानंद सरस्वती,श्री निवास रामानुजन,सुन्दर पिचई,एन,चंद्रशेखरन,सत्या नडेला,रविशंकर,रघुराम राजन,एन-आर-नारायण मूर्ति,सचिन तेंडुलकर,रवि परांजपेआदि  सभी  ब्राह्मण  हैं।प्रणव मुखर्जी  ,अटलबिहारी  बाजपेयी,लता मंगेशकर, सौरव गांगुली, जवाहर  लाल नेहरू, सुनील  गावस्करआदि  के विषय  में  कहना  ही क्या? 
आजादी  के लिए  प्राणों  की आहुति देने वाले क्रांति कारियों में  बहुत  बडा प्रति शत ब्राह्मणों  का है।
अत्यंत  दुर्भाग्य  है कि राष्ट्र  के विकास  में  तन मन धन जीवन-सब कुछ  अर्पण कर देने  वाले  इन ब्राह्मणों  की चर्चा  भी नहीं  होती ।जो भी खड़ा  होता  है वह ब्राह्मण  की आलोचना  करके  स्वयं  को गौरवान्वित  अनुभव  करता है
ब्राह्मण  की उपेक्षा  और तिरस्कार  लोगों  ने युग धर्म  बना  दिया  है।इन दूषित  मनोवृत्तियों  के कारण समाज का अधःपतन हो रहा  है।हम उदाहरण देखें  तो दान में दधीचि,परीक्षा  में भृगु,तपोबल में  कपिल, अहंकार  तोड़ने  में  अगस्त्य,नारी  को सम्मान  दिलाने  में  दया न॔द,क्रांति  में  चंद्रशेखर  आजाद, क्रोध  में  परशुराम  की कोई तुलना  नहीं  है।


यह  लेखकिसी जाति के लिए नहीं वरन ब्राह्मणों के विरुद्ध समाज में फैलाई जा रही नकारात्मकता के बारे में है ।क्या आधुनिक भारत में ब्राह्मणों की दुर्दशा तर्कसंगत
है?जिन लोगों ने भारत को लूटा, तोडा, नष्ट किया, वे आज इस देश में ‘अतीत भुला दो’ के नाम पर सम्मानित हैं और एक अच्छा जीवन जी रहे हैं। जिन्होंने भारत की मर्यादा को नष्ट किया, उसके विश्वविद्यालयों को नष्ट किया, उसके ज्ञान के भंडार पुस्तकालयों को जलाया , उन्हें आज के भारत में सब सुविधाओं से युक्त सुखी जीवन मिल रहा है। किंतु वे ब्राह्मण, जिन्होंने सदैव अपना जीवन देश, धर्म और समाज की उन्नति के लिए अर्पित किया, वे आधुनिक भारत में "काल्पनिक" पुराने पापों के लिए दोषी हैं।
आधुनिक इतिहासकार हमें सिखाते हैं कि भारत के ब्राह्मण सदा से दलितों का शोषण करते आये हैं , जिन्होंने वर्ण-व्यवस्था बनाई। ब्राह्मण-विरोध का यह महान कार्य पिछली दो शताब्दियों  में कार्यान्वित किया गया।
वे कहते हैं कि ब्राह्मणों ने कभी किसी अन्य जाति के लोगों को पढने लिखने का अवसर नहीं दिया। बड़े बड़े विश्वविद्यालयों के बड़े बड़े शोधकर्ता यह सिद्ध करने में लगे रहते हैं कि ब्राह्मण सदा से समाज का शोषण करते आये हैं और आज भी कर रहे हैं, कि उन्होंने हिन्दू ग्रन्थों की रचना केवल इसीलिए की कि वे समाज में अपना स्थान सबसे ऊपर घोषित कर सकें।किंतु यह सारे तर्क खोखले और बेमानी हैं।इनके पीछे एक भी ऐतिहासिक प्रमाण नहीं। एक झूठ को सौ बार बोला जाए तो वह अंततः सत्य प्रतीत होने लगता है, इसी भांति इस झूठ को भी आधुनिक भारत में सत्य का स्थान मिल चुका है।


आइये ,आज हम बिना किसी पूर्व प्रभाव के और बिना किसी पक्षपात के न्याय बुद्धि से इसके बारे सोचें, सत्य घटनाओं पर टिके हुए सत्य को देखें। क्योंकि अपने विचार हमें सत्य के आधार पर ही खड़े करने चाहिेए, न कि किसी दूसरे के कहने मात्र से। खुले दिमाग से सोचने से आप पायेंगे कि ९५ % ब्राह्मण सरल हैं, सज्जन हैं, निर्दोष हैं। आश्चर्य है कि कैसे समय के साथ साथ काल्पनिक कहानियाँ भी सत्य का रूप धारण कर लेती हैं। यह जानने के लिए बहुत अधिक सोचने की आवश्यकता नहीं कि ब्राह्मण-विरोधी यह विचारधारा विधर्मी घुसपैठियों, साम्राज्यवादियों, ईसाई मिशनरियों और बेईमान नेताओं के द्वारा बनाई गयी और आरोपित की गयी,ताकि वे भारत के समाज के टुकड़े टुकड़े करके उसे आराम से लूट सकें।
सच तो यह है कि इतिहास के किसी भी काल में ब्राह्मण न तो धनवान थे और न ही शक्तिशाली। ब्राह्मण भारत के शोषक नहीं हैं। वन का प्रत्येक जन्तु मृग का शिकार करना चाहता है, उसे खा जाना चाहता है, और भारत का ब्राह्मण वह मृग है। आज के ब्राह्मण की वह स्थिति है जो कि नाजियों के राज्य में यहूदियों की थी। क्या यह स्थिति स्वीकार्य है? ब्राह्मणों की इस दुर्दशा से किसी को भी सरोकार नहीं, जो राजनीतिक दल हिन्दू समर्थक माने गए हैं, उन्हें भी नहीं;सब ने हम ब्राह्मणों के साथ सिर्फ छलावा ही किया है।ब्राह्मण सदा से निर्धन वर्ग में रहे हैं। क्या एक भी उदाहरण  है, जब ब्राह्मणों ने पूरे भारत पर शासन किया हो? शुंग,कण्व ,सातवाहन आदि द्वारा किया गया शासन सभी विजातियों और विधर्मियों को क्यों खटकता है? चाणक्य ने चन्द्रगुप्त मौर्य की सहायता की थी एक अखण्ड भारत की स्थापना करने में। भारत का सम्राट बनने के बाद, चन्द्रगुप्त ,चाणक्य के चरणों में गिर गया और उसने उसे अपना राजगुरु बनकर महलों की सुविधाएँ लेकर अपने पास बने रहने को कहा। चाणक्य का उत्तर था: ‘मैं तो ब्राह्मण हूँ, मेरा कर्म है शिष्यों को शिक्षा देना और भिक्षा से जीवनयापन करना। क्या आप किसी भी इतिहास अथवा पुराण में धनवान ब्राह्मण का एक भी उदाहरण बता सकते हैं?श्री कृष्ण की कथा में भी निर्धन ब्राह्मण सुदामा ही प्रसिद्ध हैं।श्रीकृष्ण जो कि भारत के सबसे प्रिय आराध्य देव हैं, यादव-वंश के थे, जो कि आजकल OBCके अंतर्गत आरक्षित जाति मानी गयी है।यदि ब्राह्मण वैसे ही घमंडी थे जैसे कि उन्हें बताया जाता है, तो यह कैसे सम्भव है कि उन्होंने अपने से नीची जातियों के व्यक्तियों को भगवान् की उपाधि दी और उनकी अर्चना पूजा की स्वीकृति दी।महादेव शिव को पुराणों के अनुसार किरात  कहा गया है, जो कि आधुनिक व्यवस्था में STमें आते हैं।
दूसरों का शोषण करने के लिए शक्तिशाली स्थान की, अधिकार,पद की आवश्यकता होती है। जबकि ब्राह्मणों का काम रहा है या तो मन्दिरों में पुजारी का और या धार्मिक कार्य में पुरोहित का और या एक वेतनहीन गुरु(अध्यापक) का। उनके धनार्जन का एकमात्र साधन रहा है भिक्षाटन। क्या ये सब बहुत ऊंची पद हैं? इन स्थानों पर रहते हुए वे कैसे दूसरे वर्गों का शोषण करने में समर्थ हो सकते हैं? एक और शब्द जो हर कथा कहानी की पुस्तक में पाया जाता है वह है - ‘निर्धन ब्राह्मण' जो कि उनका एक गुण माना गया है। समाज में सबसे माननीय स्थान संन्यासी ब्राह्मणों का था, और उनके जीवनयापन का साधन भिक्षा ही थी।
ब्राह्मणों से यही अपेक्षा की जाती रही कि वे अपनी जरूरतें कम से कम रखें और अपना जीवन ज्ञान की आराधना में अर्पित करें। इस बारे में एक अमरीकी लेखक आलविन टफलर ने भी कहा है कि ‘हिंदुत्व में निर्धनता को एक शील माना गया है।’
सत्य तो यह है कि शोषण वही कर सकता है जो समृद्ध हो और जिसके पास अधिकार हों। अब्राह्मण को पढने से किसी ने नहीं रोका। श्रीकृष्ण यदुवंशी थे, उनकी शिक्षा गुरु संदीपन के आश्रम में हुई, श्रीराम क्षत्रिय थे उनकी शिक्षा पहले ऋषि वशिष्ठ के यहाँ और फिर ऋषि विश्वामित्र के पास हुई।  ब्राह्मण का तो काम ही था सबको शिक्षा प्रदान करना। हां यह अवश्य है कि दिन-रात अध्ययन व अभ्यास के कारण, वे सबसे अधिक ज्ञानी माने गए, और ज्ञानी होने के कारण प्रभावशाली और आदरणीय भी। इसके कारण कुछ अन्य वर्ग उनसे जलने लगे, किंतु इसमें भी उनका क्या दोष ।यदि विद्या केवल ब्राह्मणों की पूंजी रही होती तो वाल्मीकि जी रामायण कैसे लिखते और तिरुवलुवर तिरुकुरल कैसे लिखते?और अब्राह्मण संतों द्वारा रचित इतना सारा भक्ति-साहित्य कहाँ से आता? जिन ऋषि व्यास ने महाभारत की रचना की वे भी एक मछुआरन माँ के पुत्र थे। इन सब उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि ब्राह्मणों ने कभी भी विद्या देने से मना नहीं किया।
जिनकी शिक्षायें हिन्दू धर्म में सर्वोच्च मानी गयी हैं, उनके नाम और जाति यदि देखी जाए, तो वशिष्ठ, वाल्मीकि, कृष्ण, राम, बुद्ध, महावीर, कबीरदास, विवेकानंद आदि, इनमें कोई भी ब्राह्मण नहीं। तो फिर ब्राह्मणों के ज्ञान और विद्या पर एकाधिकार का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता! यह केवल एक झूठी भ्रान्ति है जिसे कुछ दुष्टों ने अपने फायदे के लिए फैलाया, और इतना फैलाया कि सब इसे सत्य मानने लगे।
जिन दो पुस्तकों में वर्ण(जाति नहीं) व्यवस्था का वर्णन आता है उनमें पहली तो है मनुस्मृति जिसके रचियता थे मनु जो कि एक क्षत्रिय थे, और दूसरी है श्रीमदभगवदगीता,जिसके रचियता थे वेद व्यास जो कि निम्न वर्ग की मछुआरन के पुत्र थे। यदि इन दोनों ने ब्राह्मण को उच्च स्थान दिया तो केवल उसके ज्ञान एवं शील के कारण, किसी स्वार्थ के कारण नहीं।
ब्राह्मण तो अहिंसा के लिए प्रसिद्ध हैं।पुरातन काल में जब कभी भी उन पर कोई विपदा आई, उन्होंने शस्त्र नहीं उठाया, क्षत्रियों से सहायता माँगी।
बेचारे असहाय ब्राह्मणों को अरब आक्रमणकारियों ने काट डाला, उन्हें गोवा में पुर्तगालियों ने क्रास पर चढ़ा कर मारा, उन्हें अंग्रेज मिशनरी लोगों ने बदनाम किया, और आज अपने ही भाई-बंधु उनके शील और चरित्र पर कीचड उछल रहे हैं। इस सब पर भी क्या कहीं कोई प्रतिक्रिया दिखाई दी, क्या वे लड़े, क्या उन्होंने आन्दोलन किया?
औरंगजेब ने बनारस, गंगाघाट और हरिद्वार में १५०,००० ब्राह्मणों और उनके परिवारों की हत्या करवाई, उसने हिन्दू ब्राह्मणों और उनके बच्चों के शीश-मुंडो की इतनी ऊंची मीनार खडी की जो कि दस मील से दिखाई देती थी, उसने उनके जनेऊ के ढेर लगा कर उनकी आग से अपने हाथ सेंके,क्योंकि उन्होंने अपना धर्म छोड़ कर इस्लाम को अपनाने से मना किया। यह सब उसके इतिहास में दर्ज़ है।क्या ब्राह्मणों ने शस्त्र उठाया? फिर भी औरंगज़ेब के वंशज हमें भाई मालूम होते हैं और ब्राह्मण देश के दुश्मन?कोंकण-गोवा में पुर्तगाल के वहशी आक्रमणकारियों ने निर्दयता से लाखों कोंकणी ब्राह्मणों की हत्या कर दी ,क्योंकि उन्होंने ईसाई धर्म को मानने से इनकार किया। क्या आप एक भी ऐसा उदाहरण दे सकते हो कि किसी कोंकणी ब्राह्मण ने किसी पुर्तगाली की हत्या की? फिर भी पुर्तगाल और अन्य यूरोप के देश हमें सभ्य और अनुकरणीय लगते हैं और ब्राह्मण  खराब,यह कैसा सत्य है?


जब पुर्तगाली भारत आये, तब संत जेवियर ने पुर्तगाल के राजा को पत्र लिखा “यदि ये ब्राह्मण न होते तो सारे स्थानीय जंगलियों को हम आसानी से अपने धर्म में परिवर्तित कर सकते थे।” यानि कि ब्राह्मण ही वे वर्ग थे जो कि धर्म परिवर्तन के मार्ग में बलि चढ़े। जिन्होंने ने अपना धर्म छोड़ने की अपेक्षा मर जाना बेहतर समझा।इन को ब्राह्मणों से असीम घृणा थी, क्योंकि वे उनके रास्ते का काँटा थे।हजारों की संख्या में गौड़ सारस्वत कोंकणी ब्राह्मण उसके अत्याचारों से तंग हो कर गोवा छोड़ गए, अपना सब कुछ गंवा कर। क्या किसी एक ने भी मुड़ कर वार किया? फिर भी संत जेवियर के नाम पर आज भारत के हर नगर में स्कूल और कॉलेज है और भारतीय अपने बच्चों को वहां पढ़ाने में गर्व अनुभव करते हैं
इनके अतिरिक्त कई हज़ार सारस्वत ब्राह्मण काश्मीर और गांधार के प्रदेशों में विदेशी आक्रमणकारियों के हाथों मारे गए। आज ये प्रदेश अफगानिस्तान और पाकिस्तान कहलाते हैं, और वहां एक भी सारस्वत ब्राह्मण नहीं बचा है। क्या कोई एक घटना बता सकते हैं कि इन प्रदेशों में किसी ब्राह्मण ने किसी विदेशी की हत्या की? हत्या की छोडिये, क्या कोई भी हिंसा का काम किया और आधुनिक समय में भी इस्लामिक आतंकवादियों ने काश्मीर घाटी के मूल निवासी ब्राह्मणों को विवश करके काश्मीर से बाहर निकाल दिया। ५००,००० काश्मीरी पंडित अपना घर छोड़ कर बेघर हो गए, देश के अन्य भागों में शरणार्थी हो गये, और उनमे से ५०,००० तो आज भी जम्मू और दिल्ली के बहुत ही अल्प सुविधाओं वाले अवसनीय तम्बुओं में रह रहे हैं। आतंकियों ने अनगनित ब्राह्मण पुरुषों को मार डाला और उनकी स्त्रियों का शील भंग किया। क्या एक भी पंडित ने शस्त्र उठाया, क्या एक भी आतंकवादी की हत्या की? फिर भी आज ब्राह्मण शोषण और अत्याचार का पर्याय माना जाता है और मुसलमान आतंकवादी वह भटका हुआ इंसान, जिसे क्षमा करना हम अपना धर्म समझते हैं। इस पर फिल्में बन रही हैं।
माननीय भीमराव अंबेडकर जो कि भारत के संविधान के तथाकथित रचियता (प्रारूप समिति के अध्यक्ष) थे, उन्होंने एक मुसलमान इतिहासकार का सन्दर्भ देकर लिखा है कि धर्म के नशे में पहला काम जो पहले अरब घुसपैठिया मोहम्मद बिन कासिम ने किया, वो था ब्राह्मणों का खतना। किंतु उनके मना करने पर उसने सत्रह वर्ष से अधिक आयु के सभी को मौत के घाट उतार दिया।” मुग़ल काल के प्रत्येक घुसपैठ, प्रत्येक आक्रमण और प्रत्येक धर्म-परिवर्तन में लाखों की संख्या में धर्म-प्रेमी ब्राह्मण मार दिए गए। क्या आप एक भी ऐसी घटना बता सकते हो जिसमें किसी ब्राह्मण ने किसी दूसरे सम्प्रदाय के लोगों की हत्या की हो?
१९वीं सदी में मेलकोट में दिवाली के दिन टीपू सुलतान की सेना ने चढाई कर दी और वहां के ८०० नागरिकों को मार डाला जो कि अधिकतर आयंगर  ब्राह्मण थे,जो संस्कृत के उच्च कोटि के विद्वान थे। (आज तक मेलकोट में दिवाली नहीं मनाई जाती।) इस हत्याकाण्ड के कारण यह नगर एक श्मशान बन गया। ये अहिंसावादी ब्राह्मण पूर्ण रूप से शाकाहारी थे, और सात्विक भोजन खाते थे जिसके कारण उनकी वृतियां भी सात्विक थीं और वे किसी के प्रति हिंसा के विषय में सोच भी नहीं सकते थे। उन्होंने तो अपना बचाव तक नहीं किया। फिर भी आज इस देश में टीपू सुलतान की मान्यता है। उसकी वीरता के किस्से कहे-सुने जाते हैं। और उन ब्राह्मणों को कोई स्मरण नहीं करता जो धर्म के कारण मौत के मुंह में चुपचाप चले गए।
अब जानते हैं आज के ब्राह्मणों की स्थिति क्या आप जानते हैं कि बनारस के अधिकाँश रिक्शा वाले ब्राह्मण हैं? क्या आप जानते हैं कि दिल्ली के रेलवे स्टेशन
पर आपको ब्राह्मण कुली का काम करते हुए मिलेंगे?
दिल्ली में पटेलनगर के क्षेत्र में 50 % रिक्शा वाले ब्राह्मण समुदाय के हैं। आंध्र प्रदेश में ७५ % रसोइये और घर की नौकरानियां ब्राह्मण हैं। इसी प्रकार देश के दूसरे भागों में भी ब्राह्मणों की ऐसी ही दुर्गति है, इसमें कोई शंका नहीं। गरीबी-रेखा से नीचे बसर करने वाले ब्राह्मणों का आंकड़ा ६०% है।
हजारों की संख्या में ब्राह्मण युवक अमरीका आदि पाश्चात्य देशों में जाकर बसने लगे हैं, क्योंकि उन्हें वहां सम्मानजनक  काम मिल जाता है। सदियों से जिस समुदाय के सदस्य अपनी कुशाग्र बुद्धि के कारण समाज के शिक्षक और शोधकर्ता रहे हैं, उनके लिए आज ये सब कर पाना कोई बड़ी बात नहीं। फिर भारत सरकार को उनके सामर्थ्य की आवश्यकता क्यों नहीं ? क्यों भारत में तीव्र मति की अपेक्षा मंद मति को प्राथमिकता दी जा रही है? और ऐसे में देश का विकास होगा तो कैसे?


कर्नाटक प्रदेश के सरकारी आंकड़ों के अनुसार वहां के
वासियों का आर्थिक चित्रण कुछ ऐसा है: ईसाई भारतीय - १५६२ रू/ वोक्कालिग जन - ९१४ रू/ मुसलमान - ७९४ रू/ पिछड़ी जातियों के जन - ६८० रू/ पिछड़ी जनजातियों के जन - ५७७ रू/ और ब्राह्मण - ५३७ रू। तमिलनाडु में रंगनाथस्वामी मन्दिर के पुजारी का मासिक वेतन ३०० रू और रोज का एक कटोरी चावल है। जबकि उसी मन्दिर के सरकारी कर्मचारियों का वेतन कम से कम २५०० रू है। ये सब ठोस तथ्य हैं लेकिन इन सब तथ्यों के होते हुए, आम आदमी की यही धारणा है कि पुजारी ‘धनवान’ और ‘शोषणकर्ता’ है, क्योंकि देश के बुद्धिजीवी वर्ग ने अनेक वर्षों तक इसी असत्य को अनेक प्रकार से चिल्ला चिल्ला कर सुनाया है।
क्या हमने उन विदेशी घुसपैठियों को क्षमा नहीं
किया जिन्होंने लाखों-करोड़ों हिंदुओं की हत्या की और देश को हर प्रकार से लूटा? जिनके आने से पूर्व भारत संसार का सबसे धनवान देश था और जिनके आने के बाद आज भारत पिछड़ा हुआ तीसरी दुनिया कहलाता है। इनके दोष भूलना सम्भव है तो अहिंसावादी, ज्ञानमूर्ति, धर्मधारी ब्राह्मणों को किस बात का दोष लगते हो कब तक उन्हें दोष देते जाओगे?


क्या हम भूल गए कि वे ब्राह्मण समुदाय ही था जिसके कारण हमारे देश का बच्चा बच्चा गुरुकुल में बिना किसी भेदभाव के समान रूप से शिक्षा पाकर एक योग्य नागरिक बनता था? क्या हम भूल गए कि ब्राह्मण ही थे जो ऋषि मुनि कहलाते थे, जिन्होंने विज्ञान को अपनी मुट्ठी में कर रखा था?


भारत के स्वर्णिम युग में ब्राह्मण को यथोचित सम्मान दिया जाता था और उसी से सामाज में व्यवस्था भी ठीक रहती थी। सदा से विश्व भर में जिन जिन क्षेत्रों में भारत का नाम सर्वोपरि रहा है और आज भी है वे सब ब्राह्मणों की ही देन हैं, जैसे कि अध्यात्म, योग, प्राणायाम, आयुर्वेद आदि। यदि ब्राह्मण जरा भी स्वार्थी होते तो यह सब अपने था अपने कुल के लिए ही रखते दुनिया में मुफ्त बांटने की बजाए इन की कीमत वसूलते। वेद-पुराणों के ज्ञान-विज्ञान को अपने मस्तक में धारने वाले व्यक्ति ही ब्राह्मण कहे गए और आज उनके ये सब योगदान भूल कर हम उन्हें दोष देने में लगे है।


जिस ब्राह्मण ने हमें मन्त्र दिया ‘वसुधैव कुटुंबकम्' वह
ब्राह्मण विभाजनवादी कैसे हो सकता है? जिस ब्राह्मण ने कहा ‘लोको सकलो सुखिनो भवन्तु' वह किसी को दुःख कैसे पहुंचा सकता है? जो केवल अपनी नहीं , केवल परिवार, जाति, प्रांत या देश की नहीं बल्कि सकल जगत की मंगलकामना करने का उपदेश देता है, वह ब्राह्मण स्वार्थी कैसे हो सकता है?
आज के युग में ब्राह्मण होना एक दुधारी तलवार पर चलने के समान है। यदि ब्राह्मण अयोग्य है और कुछ अच्छा कर नहीं पाता तो लोग कहते हैं कि देखो हम तो पहले ही जानते थे कि इसे इसके पुरखों के कुकर्मों का फल मिल रहा है। यदि कोई सफलता पाता है तो कहते हैं कि इनके तो सभी हमेशा से ऊंची पदवी पर बैठे हैं, इन्हें किसी प्रकार की सहायता की क्या आवश्यकता? अगर किसी ब्राह्मण से कोई अपराध हो जाए फिर तो कहने ही क्या, सब आगे पीछे के सामाजिक पतन का दोष उनके सिर पर मढने का मौका सबको मिल जाता है। कोई श्रीकांत दीक्षित भूख से मर जाता है तो कहते हैं कि बीमारी से मरा। और ब्राह्मण बेचारा इतने दशकों से अपने अपराधों की व्याख्या सुन सुन कर ग्लानि से इतना झुक चूका है कि वह कोई प्रतिक्रिया भी नहीं करता, बस चुपचाप सुनता है और अपने प्रारब्ध को स्वीकार करता है।बिना दोष के भी दोषी बना घूमता है आज का ब्राह्मण। नेताओं के स्वार्थ, समाज के आरोपों, और देशद्रोही ताकतों के षड्यंत्र का शिकार हो कर रह गया है ब्राह्मण। बहुत से ब्राह्मण अपने पूर्वजों के व्यवसाय को छोड़ चुके हैं आज। बहुत से तो संस्कारों को भी भूल चुके हैं । अतीत से कट चुके हैं किंतु वर्तमान से उनको जोड़ने वाला कोई नहीं। ऐसे में भविष्य से क्या आशा?आज इतना सब लिखने का उद्देश्य मात्र इतना है कि नई पीढ़ी अपनी विरासत समझे।


आज इस कड़ी को लिखते हुए किसी की लिखी एक कविता याद आ रही है- 
ब्राह्मण स्वाभिमान से जीने का ढंग है, 
ब्राह्मण सृष्टि का अनुपम अमिट अंग है।
 
ब्राह्मण विकराल हलाहल पीने की कला है, 
ब्राह्मण कठिन संघर्षों को जीकर ही पला है।
 
ब्राह्मण ज्ञान, भक्ति, त्याग, परमार्थ का प्रकाश है, 
ब्राह्मण शक्ति, कौशल, पुरुषार्थ का आकाश है।
 
ब्राह्मण न धर्म, न जाति में बंधा इंसान है, 
ब्राह्मण मनुष्य के रूप में साक्षात भगवान है।
 
ब्राह्मण कंठ में शारदा लिए ज्ञान का संवाहक है, 
ब्राह्मण हाथ में शस्त्र लिए आतंक का संहारक है।
 
ब्राह्मण सिर्फ मंदिर में पूजा करता हुआ पुजारी नहीं है, 
ब्राह्मण घर-घर भीख मांगता भिखारी नहीं है।
आज नेताओं ने आरक्षण और वोटों के लालच में ऐसी परिस्थितियों को उत्पन्न कर दिया है कि छात्र अपने शिक्षकों पर‌और शिक्षक  अपने अधिकारियों पर छोटी छोटी बातों पर मुकदमा लिखाने का प्रयास करने लगे हैं।
आज एस सी एक्ट के नतीजे देखें।लोग पानी पी पीकर ब्राह्मण को कोसते हैं। न्याय की बात करने वाले कहां गये?जिस देश में न्याय नहीं होगा,इसी तरह की स्थितियां होंगी। आज आवश्यकता है आरक्षण और एस सी एक्ट के पुनरीक्षण और सुधार की।


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