रोटी!
तेरे उदर में
न जाने
कितनों का स्वाभिमान!
कितनों के सपने - अरमान!!
कितनों की आशाएँ - आकांक्षाएँ!!!
... असमय भस्मीभूत!
तू
श्रम - सीकर का
रूप पूंजीभूत!!
रीढ़ की हड्डी झुका...
कितनों के आँसू...
और धमनियों का लहू...
कर गई
तू अंगीभूत!!!
न जाने
कितने दधीचियों की
गलाई हड्डियों से निर्मित
तू वज्ररूप!!!
कुछ क्षणिकाएंँ
1.
जब जीवन में आई बाधा
किया पलायन!
जब घर में रोटी मिली आधा
किया पलायन!
जब अपनों ने समस्या नहीं साधा
किया पलायन!
जब फटेहाली से रूठी राधा
किया पलायन!
2.
गलियाँ सड़कें पड़ी हैं सुनसान!
कल - कारखानें हुए हैं वीरान!!
हा! घर में नहीं खाने को रोटी
हाय ! क्षुधा किए है बहुत हल्कान!!
3.
जान न पाए बचपन का सुख!
मजबूरी में की मजदूरी!!
क्षुधा की देख अकुलाहट, हा!
रोटी का संगीत जरूरी!!
*डॉ पंकजवासिनी*
असिस्टेंट प्रोफेसर
भीमराव अम्बेडकर बिहार विश्वविद्यालय