वही चाय की पुरानी दुकान,
आज भी उसी जगह पर है!
वही मिट्टी का कुल्हड़,
अपनी पुरानी बेंच के साथ,
वही चाय वाले काका..!
और उनकी वही पुरानी चम्मच,
जिसकी खट-खट कीआवाज ,
दूर दूर सुनाई देती है।
जैसे पहले भी मिलती थी,वही,
एक फीकी वाली चाय,
और दूसरी मीठी वाली भी चाय..!
पर मालूम नही ,
स्वाद जैसे बदल गया हो.!
सब तो जस की तस है,
मगर चाय में ,
वो बात क्यों नहीं है ?
शायद तुम्हारी सोच,
और एहसास में फर्क है ..!
कोई कमी है तुम्हारे भीतर,
इसलिए मिट्टी वाली चाय,
फीकी लगती है..!
रोजाना की तरह मैं,
दो कप चाय ,
आज भी मँगवाती हूँ!
इस उम्मीद के साथ,
कि तुम जरूर पियोगे
क्या सोच रहे हो ?
तुम....आओगे जरूर...है...ना..!
©®प्रज्ञा मिश्रा