साँवरे


सोच कर तुझको 
रोती रही रात भर
दामन अश्कों से 
धोती रही रात भर
आंखें मेरी टपकती रही 
हर घड़ी
तिनका इसमें 
चुभोती रही रात भर
अपने भी दर्द मेरा 
समझ ना सके
अब गिला क्या करें 
गैर तो गैर थे
जितने मुंह उतनी बातें 
सही सब की सब
मैं तड़पती रही 
बिजलियों की तरह
नाही समझा किसी ने 
किसी भी तरह
चुक गए शब्द सब 
जुगनुओं की तरह
बादल गरजा तो सीने में 
धड़का कोई
बिजली चमकी तो छवियाँ
उगीं,गुम हुईं
दुख भी चमका मेरा 
रौशनी की तरह


सांवरे छब दिखा के 
हुआ गुम कहाँ
मन में भड़की हुई है
लगन-राग अब
तन में सुलगी हुई है
अगन-राग अब
बीच में आस का दीप 
है जल रहा
आस का दीप
बुझने ना पाये कभी
नाही मद्धिम हो ये
प्यार की रौशनी
साँवरे!
               ◆◆◆
©डॉ मधुबाला सिन्हा
वाराणसी


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