साहित्यिक पंडानामा:८१७


 भूपेन्द्र दीक्षित
हवा कहीं से उठी, बही-
ऊपर ही ऊपर चली गयी।
पथ सोया ही रहा
किनारे के क्षुप चौंके नहीं


न काँपी डाल, न पत्ती कोई दरकी।
अंग लगी लघु ओस-बूँद भी एक न ढरकी।
वन-खंडी में सधे खड़े पर
अपनी ऊँचाई में खोये-से चीड़
जाग कर सिहर उठे सनसना गये।


एक स्वर नाम वही अनजाना
साथ हवा के गा गये।
ऊपर ही ऊपर जो हवा ने गाया
देवदारु ने दुहराया,
जो हिमचोटियों पर झलका,


जो साँझ के आकाश से छलका-
वह किस ने पाया
जिस ने आयत्त करने की
 आकांक्षा का हाथ बढ़ाया?
आह! वह तो मेरे 
दे दिये गये हृदय में उतरा,
मेरे स्वीकारी आँसू 
में ढलका:(अज्ञेय)
आत्मा की बातें हैं ये। इसको वही समझ सकता है, जो तन मन से पावन है। अन्य के सिर के ऊपर से निकल जाएगी।
 जब इंसान प्यार में होता है, तो पत्ता पत्ता गुनगुनाता है, तिनका तिनका लहराता है, आकाश से पाताल तक धरती से हरीतिमा तक -सब कुछ गुनगुनी धूप सा, एक कुनकुनी लहर सा ,आत्मा में सरसराता है।
 यह प्यार की वह  छुअन है ,जो सिर्फ प्यार करने वाले समझ सकते हैं ,अन्य किसी के बस का नहीं है। दिल की बात सुने दिलवाला। छोटी सी बात न मिर्च मसाला। कह के रहेगा कहने वाला। दिल की बात सुने दिल वाला।
गुनगुनाती शाम का मुस्कुराता नमस्कार ,मित्रों!i


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