रे नगिनिया


यह गीत लिखते समय बहुत विस्तृत लिटरेचर मन में कौंध रहा था। असाढ़ और सावन यूं कहें यह हमेशा प्रासंगिक गीत है।स्त्री मन की व्यथा ऐसी है कि वह फूलो से पत्तों से बंटती हुई हवा में घुल जाती है। सहेली होना ऐसा भाव है जहाँ' नगिनिया ' उपमा दु:ख और विरह को कुरेदते अपने को ,अपनी सखी को देना सामान्य सी बात है।मैंने इस गीत को जीने के लिये इस परिदृश्य को उतरकर महसूसा है भाव तक उतरिये मज़ा आयेगा।


कजरी खेलने के बाद जब झूला उतरने को होता है तो अलग रंग होता है ,बहुत जगह झूले नहीं उतरते। 
झूले से उतरती हर नायिका सत्य को मथती है वहां श्रृंगार से बात बंटनी ,विरह सुख दु:ख का स्तर बहुत गहरा होता है।
बूझियेगा बहुत आनंद आयेगा।
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मल्लिका क कुशलात
वेणी पूछेली अघात 
बोला का हो कहें दुख
कस बाचें कौन सुख
बोल बिरहिन बानी 
कर बात तू सयानी 
रे नगिनिया ..........
ई बा साज सिंगार
बा परेम ही अधार
पलछी मार के बिछोह
सिरजेला अपना खोह
तबो सपना नयन
भोले सजिहें मिलन
रे नगिनिया........
तेहूं तजि अपना डारि
ढापे दुखवा हमारि
अइनी मलिनी दुआरि
मोल कइनी हम तोहारि
अस गजबे रिवाजि
सुख दु:ख एक गाजि 
रे नगिनिया.......
बा जो घेघवा उघार
लोग जोही सिंगार
आ जो रहे सिंगार
करे घेघवा बिचार
पूछे मोसे जार जार
बाटे कपे धिक्कार 
रे नगिनिया.......
का दो गौरा मनावे
केहु भोले के बोला
बड़ असनी सजावे
बड़ बकनी बजावे
भोला सोचे छन छन
हम त बसीले हो मन
रे नगिनिया.......
तोर दुख जो बा मोर
बांट लेहु थोर थोर
देहु मोहे गमकाय
लेबो माथ पे सजाय
ठानीं अपनो रिवाज
मन  रही ढेर साज
रे नगिनिया.........


     आकृति विज्ञा 'अर्पण'


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