पोथी पढ़ पढ़


ललित नारायण मिश्रा
बात उन दिनों की है जब पूसा इंस्टीट्यूट नई दिल्ली में पढ़ाई और रिसर्च दोनों चल रहा था । पढ़ाई अपने अंतिम चरण में थी और करियर की चिंता सर पर सवार थी । एक्जाम पर एक्जाम होते जा रहे थे , कभी पहला चरण पार होता था कभी दूसरा इसी तरह हम उम्र साथियों की दिन चर्या एक दूसरे को दिलासा देते गुजर रही थी । हमारे एक मित्र थे प्रभात शुक्ल Prabhat Kumar  जो आजकल उसी संस्थान में प्रधान वैज्ञानिक हैं वो हर रिज़ल्ट के बाद एक जुमला दोहरा दिया करते थे "Success has a thousand fathers, but failure is an orphan." उनका ये जुमला किसी ठंडे मरहम की तरह दिल को सुकून दे दिया करता था कि चलो फिर से लगो दोस्तों अभी अपना समय नहीं आया है उस समय उनका वो जुमला उतना समझ में नहीं आया जितना आज इस *सेंचुरियन जेनरेशन* को देख कर समझ आ रहा है ।  दसवीं और बारहवीं के नतीजे धड़ाधड़ आ रहे हैं कुछेक शत प्रतिशत लेकर पास हो रहे हैं । सोशल मीडिया में बधाइयों का दौर मै भी देख रहा था तभी ऑफिस के एक हंसमुख कर्मचारी ने बड़े उदास होकर कहा " सर बिटिया कल से खाना नहीं खा रही उसके  परसेंट कम आएं हैं " मैंने  पूछा कितने आए हैं तो उसने बताया कि यही कोई 65% । मैंने कहा कि नंबर तो बहुत अच्छे हैं उसने कहा कि स्कूल में कई बच्चों के 90% के ऊपर हैं । बात यहीं से गड़बड़ा गई वो बच्ची जो अपनी मेहनत से 65% से ऊपर नंबर ला चुकी है उसका आत्मविश्वास सिर्फ इसलिए डगमगा रहा था कि उसे कईयों  से कम नंबर मिले , यही नहीं लोगों की तारीफ नहीं मिली, स्कूल की भी तारीफ नहीं मिली क्योंकि नगाड़े सेंचुरियन के लिए बज रहे थे । उस जुमले में असफल अनाथ होते थे इस दौर में सफल बच्चे भी अनाथ से हो रहे हैं । ये समय है जब बच्चा समाज और स्कूल से आंखों ही आंखों से बहुत कुछ सुनना चाहता है मां बाप और परिवार से बहुत से दर्द बांटना चाहता है इस दर्द को न बांटने का परिणाम भयावह होगा। ये वो पीढ़ी है जिसको मनचाही सफलता से नीचे कुछ भी मंजूर नहीं उसे ये पाठ कभी पढ़ाया ही नहीं गया कि हार के बाद जीत भी होती है समय हमेशा एक जैसा नहीं होता । न ये चैप्टर स्कूल की किसी किताब में उसे मिला न ही घर की किसी दीवार पर । अब उसे अंधेरा ही अंधेरा नजर आता है और यहीं से डिप्रेशन की शुरुआत हो जाती है जो मां बाप और पड़ोसी फर्स्ट आने पर ताली बजाते और केक काटते थे वे अवाक से गुमसुम हो जाते हैं । उस बच्चे ने अब तक तालियां बजते देखी थीं नंबर कम आने या फेल होने पर कैसे संभला जाता है ये किसी ने सिखाया नहीं था उसे क्या पता कि जिस कबीर पर लोग पीएचडी करते हैं वो अनपढ़ थे , कालिदास की जीवन यात्रा विफलताओं से ही शुरू हुई । न जाने कितने आविष्कार सैकड़ों प्रयोग फेल होने के बाद सफल हुए। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन के नाम असफलताओं की लंबी फेहरिस्त है । कभी आपने ये जानना चाहा क्या कि भगवान बुद्ध को कितने नंबर मिले? क्योंकि जिंदगी नंबर से नहीं कर्मों से पहचानी जाती है । ये जीवन अमूल्य है स्कूल और किताबें ही जिंदगी का परिणाम घोषित नहीं करतीं । बहुत से टॉपर्स कॉम्पटीशन के दौर में लड़खड़ा जाते हैं , स्कूलों के नम्बर दीवार पर धूल खा रहे होते हैं और गोल्ड मेडल पर लगी जंग बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देती है । जिंदगी इन नंबरों और भेड़ चाल के सामाजिक पैमानों पर नहीं चलती ।सिर्फ नंबर ही जिंदगी नहीं है जिंदगी नंबरों की दौड़ से बहुत परे है । यहां वही सम्राट होता है जो गिर कर भी संभलना सीख लेता है। जिंदगी अपनी पाठशाला में ही असली सबक सिखाती है और निष्पक्ष नंबर देती है। ये बात तब और बेहतर समझ में आएगी जब स्कूल और यूनिवर्सिटी का दौर पार कर आप कहीं नए मुकाम पर खड़े होंगे और अपने साथ साथ इस देश के लिए कुछ नए सपने देख रहे होंगे ।आप इस देश का भविष्य हैं आपके अंदर बहुत संभावनाएं हैं उसे तलाशना और तराशना है , आपसे बेहतर तोहफा इस देश के लिए कुछ भी नहीं है बस हिम्मत मत हारना । - ललित


( सत्यमेव जयते )


लेखक वर्तमान में अपर मेलाधिकारी हरिद्वार हैं


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