बंदिशों की जो बेड़ी बँधी पैर में,
उसको तोड़ें और आगे बढ़ें बेटियाँ।
दफ्न दिल में है अरसे से अरमान जो,
उसको पूरा करें और बढ़ें बेटियाँ।
हौसलों की उड़ानों को रुकने न दें,
सारे सोपान क्रम से चढ़ें बेटियाँ।
जो हैं नारी को भोग्या समझते यहाँ,
उनसे डटकर और तनकर लड़ें बेटियाँ।
भेड़िए,काम-लोलुप जहाँ भी मिलें,
उनको कुचलें और आगे बढ़ें बेटियाँ।
जिन रिवाजों ने कैदी बनाया सदा,
तोड़ रस्मों की कारा बढ़ें बेटियाँ।
रोशनी बनके जग से मिटा दें तिमिर,
अपनी किस्मत को खुद ही गढ़ें बेटियाँ।
बन हिरण- शाविका अब है रहना नहीं,
सिंहनी बन,विपिन में चलें बेटियाँ।
अस्मिता की जो चादर अनावृत करे,
बिजलियाँ बन के उस पर गिरें
बेटियाँ।
एक हुंकार काफी प्रलय के लिए,
सिर्फ चट्टान जैसी अड़ें बेटियाँ।।
डॉ नित्यानंद मिश्र
वरिष्ठ प्रवक्ता, हिन्दी
जवाहर नवोदय विद्यालय शेरघाटी, गया, बिहार।