मैं, मैं हूं
और
तुम, तुम हो
किन्तु मैं और
तुम के द्वंद्व युद्ध में
जीवन का कोई अस्तित्व नहीं
अहं से परिपूर्ण जीवन में
आपसी सहयोग और
सौहार्द्र का सर्वथा अभाव
न एक दूजे के प्रति विश्वास
न कोई चतुर्दिक विकास
अनवरत आपसी खींचतान
और प्रतिप़ल संग्राम
न कोई स्नेह न कोई सम्मान
अंतर्कलह से परिपूर्ण जीवन
न प्रेम का प्रवाह,सिर्फ तकरार
उपजते हैं मन में हर क्षण
अत्यधिक विकार और अहंकार
छल-प्रपंच से परिपूर्ण रहता जीवन
अशिष्टता, अभद्रता का भी आयोजन
और क्लेश, द्वेष का होता आवाहन
कलुषित वातावरण , नहीं भाव-समर्पण
स्वरचित मौलिक रचना
राजीव भारती
भिवानी, हरियाणा