कोरा काग़ज़


दिल  के  कोरे   काग़ज़  पे,
छपती   गईं  चढ़ते   उतरते ,
भावों की  रंगीली भंगिमाएँ 
दिन महीने  साल दर साल,
अंकित  होते  गये  हर भाव,
निर्विकार,निर्विरोध,निर्बाध!
क्योंकि था  वह हमारा हुनर,
मेरा प्रेम, थे मेरे अपने शब्द ,
सुसज्जित शब्दों को टंकित 
कर गुंफन करने  की  कला,
सब की स्वामिनी मैं  ही थी!
था नहीं  किसी का भी यहाँ 
कोई अख़्तियार या  प्रवेश!
ह्रदय की अंत: भित्तियों पर
खुदी  हमारी  इन हुनरों  पर
खुदा भी नहीं रखते थे मंशा,
मुझे   मुक्त  करने  की   इन,
अद्भुत, विलक्षण  ऊर्जा  से !
छपते   गये  भाव  इन्द्रधनुषी,
बन गयी पूरी की पूरी डायरी,
लगा, मैं   ही   गुम   हो   गई,
खुदे  अक्षरों  के  बीच कहीं !
धीरे-धीरे रिसने लगा प्रेमरस,
अंत:  भित्तियों    का   रिसाव,
बहता हुआ आ गया सतह पर!
अंकित  शब्दों  की  चमक भी,
धीरे-धीरे  पड़ने  लगे  मद्धिम...
फिर ये क्या..? खुदे  शब्द ही
सारे बह गये..! क्या स्याही ही 
कच्ची थी?....या  अंत:करण
की  भित्ति स्याही योग्य न थी?
या बन गया था प्रेमरस,मवाद?
रह गया दिल  कोरा ही कोरा,
हुनर हो गई बेमानी, रह गया,
कोरा काग़ज़ कोरा ही......


स्वरचित रचित 
रंजना बरियार


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