दर्पण के सामने
हुए रूबरू आज
निहार रहा हमें
मुस्कुरा रहे हम
देख एक-दूसरे को
तसल्ली हुई बहुत
जैसे जानते है
सदियों से हम
एकटक निहारा
हालात किए बयां
वक़्त बीत गया
दूर हो गए थे
नजदीक हुए फिर
फासला किया कम
आँखें हुई नम
कहना चाहा कुछ
पर गटक गई गम
नजर मिली नजर से
बहने लगी अश्रुधारा
दर्पण समझ चुका
जो खड़ी है सामने
बतियाना चाह रही
प्यार से बोला दर्पण
कह दो जज्बात
मैं हूं न पास
हूं तुम्हारा अपना
उगल दो जो उगलना
हो जाओगे हल्के
गम से पाओगे निजात
हमने खोल दी परते
गले लगाकर दर्पण को
हुआ अहसास अपनेपन का
हम खुश थे बहुत 'स्वप्न'
जैसे मिला कोई अपना।
है न स्वप्न...!
सपना पारीक 'स्वप्न'
बिजयनगर(अजमेर)
कह दो जज्बात