एक तरस
जो ख्वाबों में जीकर बर्बाद किये वक्त
अनजान थे कितने
जिंदगी की इस उठा-पटक से
या एक घृणा
उस घटना के लिए
जब हुए थे शर्मसार
'मैं कितना बेवकूफ़ था', सोच सिर पटकते हो
या एक बेबसी
ख्वाहिशों को मारने कि
कभी अपनों की खुशियों के लिए
तो कभी जिम्मेदारियों के बोझ तले
या एक खौफ़
कोई घिनौनी बात के लिए
जो अगर जान जायें लोग
तो मुँह दिखाने लायक भी न रहो
या एक तड़प
जब सोचते हो
अपने मरते सपनों के बारे में
बंद, अंधेरे कमरे में, बेहोश-सा पड़े
कभी न कभी
एक आग होती है हर सीने में
ये जो घाव हैं, उसकी ही निशानी है
ये लिखी विषाद, हर दिल की कहानी है।
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स्वरचित
प्रभात 'प्रभात'
औरंगाबाद, बिहार