कहाँ विचरण करने लगे
कल्पनालोक में ----
तुम भी सावन?
भारतीयों के अच्छे दिन की तरह!
तुमसे तो जुड़ी सबकी श्रद्धा....
क्यों रूठे हो सावन?
कहांँ गया तेरा वो उल्लास...!
वो उछाह...!! वो उमंग...!!!
-----जो नहला देता था सबको
"भीतर - बाहर"!
ऊपर से नीचे तक!!
जिसमें घुल जाती थी
सारी क्लांति :
तन की...! मन की...!!
कहांँ गया :
तेरा वो झमाझम बरसना!?!
जिसमें बह जाता था
तन का सारा उन्माद!
और मन की सारी बेचैनी...!!
तेरी वह टप- टप बूंदाबांदी...
तेरा रिमझिम रिमझिम संगीत...
और धरती बन जाती
कभी तबला! कभी मृदंग!!
तो कभी नादमय जलतरंग!!!
तेरा ये रूप देखकर
विरहिनी के कलेजे में उठने लगती हूक!
और उतर आता मदन
प्रेमी जनों की आंखों में!!
आओ सावन!
यूंँ न रूठो ----
एक बार फिर आ जाओ
प्यासे सांँवरिया बनकर!
और बरसो धारासार....
अपना हृदय उड़ेल कर रख दो -----
धानी धरा को समेट लो
अपने बाहुपाश में!
और उसके तपते तृषित अस्तित्व को
कर दो सरस चुंबित!!
सिंचित कण - कण तृण - तृण....
और तुम्हारा अंश पाकर
वह हो जाए रत्नगर्भा!
अंकुरने लगें :प्यार के बिरवे!!
धरती हो जाए शस्य- श्यामल
तृण - द्रुम आच्छादित!!
किलक उठे उसका हृदय - प्रांगण!!
भर जाए वह तृप्ति के आह्लाद से....
और
उसकी तृप्ति का प्रसार :चहुँओर...!!!
और
श्रद्धा से तेरी राह देखते
किसानों की उम्मीद हो पूरी!!
डॉ पंकजवासिनी
असिस्टेंट प्रोफेसर
पटना