ये पूर्वांचल की नारी है

 


आग पीती हैं आह भरती हैं 
ये पूर्वांचल की नारी है
जहाँ पुरुषों से ज्यादा अत्याचार
नारी ही नारी पर करती है.. 


आभूषणों की डाल कर सांकल
पांव में पायल की बेंडिया पहनाती 
नथ से नाथ कर उसे 
घूंघट की आड में छुपाती हैं 
कभी दहेज कभी उपहार के नाम पर
दुल्हन दहेज़ की बेदी पर चढती है...


वो नारी जिसका शरीर ही नहीं 
मन भी तुम्हारा बंदी है
दिख जाती है कहीं भी 
घरों में बेतरतीब या बाहर सजी संवरी
जीना बहुत मुश्किल है कहती 
जीवन के रंगमंच पर जीने का स्वांग भरती है...


असभ्य बर्बर व्यवहार को
आंसुओं से सिंचित करती है 
थोड़े सुःखों की चाह में 
यातना के पलों को भुला देती है 
बर्तनों की कालिख भरी हथेली को
तीज त्यौहार पर मेंहदी से छुपाती है...


    एकता उपाध्याय


गोरखपुर


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