उठो लेखक!
अब जरा अपनी बातों में
मिमियाहट घुसेड़ना बंद करो
और फुँफकारो उन नौकरों पर
जो पहले 'मालिक'
और आज कल भगवान होते जा रहे हैं
उठो लेखक!
अब जरा अपनी कलम में
स्याही भरना बंद करो
और भरो बारूद
कि शब्दों से ही उड़ा सको
उन आसमान छेदते किलों को
जो बनाई गयी हैं,
गरीबों की रोटियां बेच कर
उठो लेखक!
अब जरा अपनी गर्दन झुका
'जी हुज़ूर' कहना बंद करो
और बंद करो राजसी चौखटों पर
जीभ रगड़ना, फिर चाहे सिर बचे या न बचे
उठो लेखक!
अब जरा अपनी माशूका की बालों में
तारें सजाना बंद करो, एक लेखक हो तुम
पीढ़ियों-पीढ़ियों को जवाब देना है
उठो लेखक!
देखो बाहर, अंधेरा कितना घना छा रहा
उठो!
शब्द बाण दागों
और क्रांति का आह्वान करो।
प्रभात आंनद