बादलों के पार
उस नीली नदी के किनारे...
मेरे ख्वाब सुस्ता रहे हैं...
चाँद की हथेलियों में
धीरे से
सहेज दिया था उन्हें...
कहा भी था चाँद को...
ले जाके इन्हें
रख देना वहीं
उसी नीली नदी की
किसी लहर पर
धीरे से और भेज देना
आगे...
उस दिशा में
जहाँ उस मासूम
लड़की के आँसू
बहते हुए जा
मिले हों..
हाँ, वो यहीं बैठी थी
देखा था न चंदा तुने
कितना टूट चुकी थी...
ये मेरे थके हारे ख्वाब
उन आँसुओं को
तसल्ली तो दे ही देते
लेकिन ये चाँद भी न
न जाने किस भरोसे पर
अपनी आस्था की
अंधी चादर से ढक
चाँदनी की गोद में
सुला आया उन्हें...
सुनीता सामंत