साहित्यिक पंडानामा :भाग ७८९


भूपेन्द्र दीक्षित
साहित्य  की दुनिया  जितनी सरल दिखाई  देती है,उतनी है नहीं ।ठीक है कि इसमें  निराला  जैसे लोग हुए,पर अधिकांश व्यावसायिक साहित्यकार  निराला और कबीर का फक्कडपन तो दूर रहा ,उनकी सोच को छू भी नहीं  नहीं  पाते।अधिकांशतः धन और महत्व की लालसा में  राजनीतिक  गलियारों के चक्कर काटते रहते हैं ।काश पद्म श्री मिल जाए।साहित्य  अकादमी की धूल जीभ से चाट डाली।कोई  टुटहा  ही एवार्ड मिल जाए।साहित्य   संस्थानों  के बाबुओं चपरासियों की चप्पलें  तक उठा डालीं।महत्वपूर्ण  महिलाओं  के चक्कर  काटे।जिन्हें  देखकर उबकाई आ जाए ,उन्हें साहित्य  की मेनका,रंभा और उर्वशी करार दिया ।
कुछ साहित्यिक  धंधेबाज तो पिछली सरकारों  में  उनका झंडा, बैनर और पोस्टर  लिख लिख कर इतने ताकतवर हो  गये थे कि संस्थानों  के कार्यक्रम  तय करने लगे थे।चमडे का सिक्का  खूब चला मित्रों ।हमने एक बार एक कार्यक्रम  किया ।हमने उनको आमंत्रित  किया ।उनका  कहना  था -हम फाइव स्टार होटल में  ही रुकते हैं ।हमारे  स्टैंडर्ड  के हिसाब  से व्यवस्था  करो।अब सीतापुर  में  कोई  फाइव स्टार  होटल  तो है नहीं ।तो उनकी  साहित्यिक  सेवा  फाइव स्टार  होटल की मुखापेक्षी थी।
मुझे स्मरण  हुआ वर्षों  पहले एक साहित्यिक  रंभा  लेकर  वे हमारे  गुरु  जी के यहाँ पधारे  थे।गुरु  जी ने  महिला  समझ कर उन्हें  हमारे  यहां  टिका दिया ।साहित्यकार  महोदय ने रात भर गुरु  जी का आतिथ्य  ग्रहण किया  और इतने नाराज  हुए कि गुरु  जी  का साहित्यिक  बायकाट शुरु करा दिया ।हमारे  सीधे सादे गुरु जी हमसे यही पूछते  रहे कि  भइया हमारा अपराध  क्या है?हम क्या  कहते कि साहित्यिक  विषकन्या आपको  डस गयी।


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