साहित्यिक पंडानामा:७९८


भूपेन्द्र दीक्षित 
यह कैसा विकास
चारों और उगी है केवल
गाजर घास
गाजर घास।


चेहरे मुरझाए मुर्दाने
सभी उदास
सभी उदास
( पंकज भी है यहां उधास)
नहीं पता है कौन दूर है
और कौन है पास
वातानुकूलित कमरों में कवि
गाते असंपृक्त संत्रास
रोना आता है सुन सुनकर
उनका हास और परिहास।


छुट्टी में बच्चे गाते हैं
या तो फिल्मों की बकवास
या कि खेलते ताश।


सूख गए सारे पलाश
अब शब्दकोश में है मधुमास
कालिदास के मधुर समास
सब ‘खल्लास'[धर्मयुग में छपी प्रभाकर माचवे जी की पुरानी कविता]
भारत की आजादी के बाद यह कैसा विकास हुआ है? विकास है कि विनाश है ।चारों तरफ गंदगी का साम्राज्य है। हम अपने को विकसित कहते हैं और घर की गंदगी चौराहे पर डाल देते हैं ।हम गाय पालते हैं उसे चारा नहीं देते ,दूध निकाल कर सड़क पर छोड़ देते हैं ।हम अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम विद्यालयों में पढ़ाते हैं और हिंदी का झंडा बुलंद करते हैं ।हम छोटे-छोटे पुरस्कार पाने के लिए जबरदस्त जोड़-तोड़ करते हैं और साहित्य को ऊंचाइयों पर ले जाना चाहते हैं ।
इस पैटर्न पर देश का जो विकास हो रहा है, वह विनाश में तब्दील है ।भगत सिंह पैदा जरूर हो, पर पड़ोसी के घर में। इस मानसिकता को जब तक हम नहीं बदलेंगे ,तब तक इस देश का सूरते हाल नहीं बदलेगा।
 तो हिंदी को बढ़ाना है तो अपने बच्चों को हिंदी पढ़ाना है और देश में अगर स्वच्छता लानी है, तो चौराहे पर झाड़ू लगानी है ,गाय का नारा लगाना है तो गाय को चारा देना है दूध अगर पीना है तो जानवर भी पालना सीखना होगा ।साहित्य को शाश्वत स्वरूप देना है ,तो जोड़ तोड़ और जुगाड़ को छोड़ना होगा। शुभकामनाएं मित्रों!


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