पिता को समर्पित--------


कैसे भूलूँ  पिता को अपने जो मेरा अभिमान थे। 
जिनसे है अस्तित्व हमारा जिनसे ये पहचान है। 
मुझे मिली शोहरत इतनी कैसे मैं उसको बतलाऊँ?
वो मेरी ताकत पूंजी थे  ख़ुशियों के वो जहान थे 
कैसे भूलूँ-


जब भी आती याद तुम्हारी अविरल आंसू बहते हैं। 
बाबूजी की याद में अक्सर रात रात भर जगते हैं। 
सब कोई तो दीखता पापा घर आंगन हर कोने में.
सत्य शाश्वत क्या है इसके राज सभी हम कहते हैं। 
कैसे भूलूँ----


बहुत सी बातें कहनी थी और बहुत राज बतलाने थे। 
जाने कितनी दिल की बातें कितने ज़ख्म दिखाने थे। 
कितनी बातें ऐसी थी जो किसी से हम न कह पाते। 
कितने राज छिपे थे दिल में जो तुमको समझाने थे। 
*** 


क़ाश एक दिन रुक जाते मैं जी भर तुमसे मिल लेती 
हाथ दुआ वाले पापा के अपने सर पर रख लेती 
 कातर नैना अब रोते ना रोम रोम विह्वल  होता
अंत समय पर मिल लेती अफ़सोस हमें ये ना होता 


**
ये भी तो है सत्य शाश्वत    जो आया सो जायेगा। 
लेकिन याद आपकी बापू दिल ये भूला न पायेगा। 
अपने व्यथित हृदय को मैं ये कह कर समझा लेती हूँ। 
मेरे अस्तित्व के निर्माता इस जनम न तुझे भुलायेगा 
**
आज व्यथित हृदय के सारे सुमन समर्पित करती हूँ। 
अपने अच्छे बाबूजी को शत शत वंदन  करती हूँ। 


@ मणि बेन द्विवेदी
वाराणसी (उत्तर प्रदेश)


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