मुक्तक

नेता  नेत  ना  बेचे   जले  सरकार  में  ना  जा ।
बेटा  खेत  ना  बेचे  जले   बदचार  में  ना  जा ।
जहाँ गुन ज्ञान हो गउदा उहाँ इंसान के सउदा-
वेता  बात  ना  बेचे   जले  दरबार  में  ना  जा ।


भाव तरपर में ना  जागे जले  मनुहार ना होला ।
मजा सरवर में ना आवे जले मझधार ना होला ।
केहू दिलदार ना होला सवख सिंगार कइला से
वफ़ा ज़ीगर में ना जज़्बे नैन  गर चार ना होला ।


कबो   इतबार  उठेला  कबो  इकरार  होखेला ।
कबो सुरताल  बदलेला  कबो  सिंगार होखेला ।
कली ऊ फूल का भइल  अगरजे रंग ना बदले-
भौंरा   भौंर  मारेला  जहाँ  मधु   डार  होखेला ।


जले  कोई वार  ना करे  तले  वार ना होला ।
अगर  समाज संघे बा  त  कबो हार ना  होला ।
जज  कबहूं  ना  डरेला  जीभ के  जिरह  जोर से-
बे  कोउ  तर्क  मुबहस   के  सज़ा  स्वीकार ना होला ।


कबो जलबाढ़  होखेला  कबो  सूखार होखेला ।
कबो  मधुकोष  होखेला  कबो मल्हार होखेला ।
खार  आ थार  जिनिगी  ह  जमे जहाँ  प्यार के फुनगी-
कबो गुलजार होखेला  कबो  पतझार होखेला ।


गलत ब्यवहार कइला से नीमन परचार  ना होला।
जहाँ बा सभ निज मन के  उहाँ  परिवार ना होला।
सदय  बेबहार के कइला से हृदय आनंद मिलेला-
बिना उपकार  कार के  कइले जय जयकार  ना  होला। 


कलम के कैंची काटे से कोई कविकार ना होला। 
फूट  के खेती  कइला से कोई जनकार ना होला।
छाड़ि के  अब  तंज  व्यंग के तीर तू तथ्य लिखऽ ढंग के -
कोउ  चार गो  मुक्तक  लिखला से  होसियार ना होला।


अमरेन्द्र
आरा


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