मेरे पिता,
जीवट व्यक्तित्व के धनी।
मृत्यु ने जीवन-पथ पर उनके,
घात लगाई है कई बार,
पर हरबार जिंदगी जीत गई,
मृत्यु हारी है कई-कई बार।
पर इसबार-
बेरहम मृत्यु ने छीना उन्हें मुझसे,
जिंदगी हार गई इस बार,
मृत्यु विजयी हुई इस बार।
अनायास ही चले गए वो,
छोड़ के हम सबको।
जहाँ से लौट के न आये,
वापस फिर कभी कोई।
मन कहता है वो,
यहीं कहीं पर हैं।
न कभी देख सकूँगी उनको,
न सुन पाऊँगी उनकी,
अच्छी या कड़वी बातों को।
न जानेक्यूँ-
मन को लगे ये बार-बार,
मैं फिर से देखूँगी उनको,
कोई गीत सुनते हुये,
गुनगुनाते हुये,
तबला बजाते हुये,
बेशक वो हमें लोरी नही सुनाते,
मुश्किलों में न आँसू बहाते।
हमारे सपनों के साथ रहे हरदम,
सपने पूरे हो हम सबके,
वो कभी न हुये खुद के अपने।
विस्मित हूँ मैं-
माँ का ये रूप-रंग परिधान देख,
नही लगेगी कभी,
उनके माथे पर अब बिंदी,
नही सुनाई देगी अब,
हाथों की चूड़ी की खन-खन।
देख के हतप्रभ स्तब्ध हो रहा है,
मेरा मन,
यही कहता है बारम्बार।
जन्म-मरण हरबार,
कर्मकी लीला अपरम्पार।
डॉ संगीता पाण्डेय"संगिनी"
स्वरचित। कन्नौज
मेरे पिता,