छूने को कलम दौड़ी
जो कभी मेरे " मन " को भी
उड़ती फिरेगी चाँद , गगन
जुगनू के पीछे भी
मन बावरा है माने कहाँ
मेरी कभी भी
मैं तो यहीं हूँ वो करे
झीलों की सैर भी
कहते हैं हवा से भी तेज
मन की चाल है
वो जाने सब के मन में
छुपा क्या मलाल है ।
मन के अन्तस् में छुपे
कितने घाव हैं
कुछ जख्म सिसकते हुए
नंगे पाँव हैं
हँसते लबों के पीछे
संतुलन मन का है
भीगी पलक के नीचे
संवेदन मन का है।
✍स्वरचित✍
अर्पना मिश्रा