लज्जा भी तुम बेच खाए
बेकार जमीन का टुकड़ा है बोल-बोलकर,
तुम्हारे पूर्वज देश का हिस्सा चीन को दे आये|
आज वीरों की शहादत पर तुम राजनीति कर रहे,
क्या बची-खुची लज्जा भी तुम बेच खाये||
किस हक़ से सवाल उठा रहे शासन पर,
तुम अपनी सत्ता में असंख्य सेना को बलि चढ़ा आये|
हद होती है निर्लजता की, कैसे भूल गये अपनी हरकतें,
तुम सैन्य हथियार के नाम पे घोटाला कर पैसे डकार खाये||
उन वीरों की खातिर एक बार गंदी राजनीति छोड़,
इंसान की तरह अपनी नैतिकता दिखा नहीं पाये|
देश के साथ खड़े हो, सेना को हिम्मत बंधा आते,
लेकिन तुम तो इंसानियत भी अपनी बेच खाये||
अपनी सत्ता में फैलाई, भ्रष्टाचार, घोटाला भूलकर,
विषम परिस्थिति में तुम गंदगी फैलाने चले आये|
अपनी घटिया राजनीति चमकाने को तुम,
सेना को सम्मान और श्रद्धांजलि भी न दे पाये||
किस हक़ से खुद को देश का कहते हो,
तुम देश के कभी न काम आये, न कभी अपना फर्ज निभाये|
जाने कितनी बार दुश्मन के हाथ सुरक्षा नीति गुप्त योजना शौंपे,
अपनी नीचता में तुम देश का मान-सम्मान गरिमा तक बेच आये||
डॉ सरिता चंद्रा
लज्जा भी तुम बेच खाए