समय की रेत के
मरु पर हम किसी
गुजरे हुए मुसाफिर
के पैरों के निशान
ढूँढते है ||
बहते इक तूफान के बाद
बहार की कोई मंजिल
ढूंढ़ते है,
गुजर गया जो सैलाब
उसमे यादों के पैगाम
ढूँढ़ते है ||
डूबती सी कश्तियों पे
आशा के चिराग ढूँढ़ते है
न चाह जिसे कभी वो
ख्वाब ढूँढ़ते है ||
खामोश हवाओं में
किसी अपने के आने
की आहट खोजते है
फिर कुछ पल रुक कर
सोचते है ||
रूकना है सही नहीं
फिर ना जाने कौन सी
मंजिल हम ढूँढ़ते है
हाँ मंजिल हम ढूँढ़ते है ||
मुकेश' लाडो 'शर्मा