खंजर खाए लगते हो


मुसीबत  के   मारे   लगते  हो
तुम  चोट  सी  खाए लगते हो


नभ में  देखें  हैं  नभचर  बहुत
जख्मी पाखी से तुम लगते हो


गैरों   को  खूब    लूटा  तुमने
तुम  अपनों   से ठगे लगते हो


पीठ पर  खंजर  घोंपने  वाले
सीने खंजर   खाए  लगते  हो


मतलबपरस्ती की है हद पार
मतलबपरस्त   हुए  लगते हो


भूल    बैठे   थे   दुनियादारी 
दुनिया  याद  किए  लगते हो


अहं  से सिर  सदा  था ऊँचा
मैं  चूर  चूर  किए  लगते  हो


बाँधते  थे तुम  बातों के पुल
बात  तले   दबे से  लगते हो


सदा  सिंह  सा दहाड़ने वाले 
भीगी बिल्ली सदृश लगते हो


सुखविन्द्र  सीखाते   थे  तुम
आज  खुद  सीखे  लगते हो
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)


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