वो मिट्टी में खेल रही थी
गुड़िया सी डोल रही थी
इक लट माथा चूम रही थी
नादानी में वह हंस रही थी
कस्तूरी सी महक रही थी
बालपन की गंध निराली
हंसते -हंसते भूल रही थी
चोली उसकी उघड़ रही थी
जाने कब एक पंजा आया
नोंच पंख , बचपन ले भागा
आँख से पानी रहा ढुलकता
देख उसे रो उठे नभ -धरा
शेष रहा न शुचि गंध उसका
निस्तेज थी कुचली गई सुता
कस्तूरी गंध नारीत्व था उसका
कस्तूरी गंध देवीत्व था उसका
खण्डित हुई फिर इक देवी प्रतिमा
विसर्जन न भाग्य में था उसका
कूड़े में क्षत -विक्षत थी कलिका
डॉ. निरुपमा वर्मा
एटा (उत्तर प्रदेश )