सर्दीऔर भंयकर लू
के थपेड़ों को सहता,
और बेबसी में जीता,
इन्सां होकर भी
जानवरों की भाँति
जीने को आज वक्त के
हाथों हो गया मजबूर हूँ।
हाँ मैं मजदूर हूँ।
कल जिनका चहेता था,
आज उनके लिए ही
हो गया हूँ बेगाना,
पत्रों के शहर में
न घर है न ठिकाना,
ताउम्र बनाता रहा जिनके घरों की छतें ,उस शहरकके फुटपाथों पर ही
सोने को हुआ मजबूर हूँ
हाँ मैं मजदूर हूँ ।
माँ के आँसुओं तथा
गले तक कर्ज में डूबे पिता के
वात्सल्य का कर्ज उतारता
गर्भिणी पत्नी को साथ लिये
भूखे बच्चों के खातिर
सड़क,साइट पर पत्थर
तोड़ने को हुआ मजबूर हूँ
हाँ मैं मजदूर हूँ ।
आफत, विपदा,
बाढ़, तूफान, सूनामी,
महामारी में
काल का ग्रास बन
भुखमरी,बेरोजगारी से
सड़को, फुटपाथों
पर मरने को हुआ मजबूर हूँ
हाँ मैं मजदूर हूँ।
इस कोरोना काल में
में बची खुची पूँजी
को भी दाँव पर लगा
जीवन बचाने के जद्दो जहद में
भूख प्यास से व्याकुल
नंगे पाँव पैदल ही आज फिर
गाँव लौटने को हुआ मजबूर हूँ
हाँ मैं मजदूर हूँ ।
किरण मिश्रा "स्वयंसिद्धा"
नोयडा