दूर तक अब भी तन्हाइयों के सिलसिले हैं
मत पूछ किस कदर इक दूजे से गिले हैं।
देती है दस्तक यादों के काफिले फिर दर पे
आज फिर बेसब्र होके हम इनमें घुले हैं।
सोचा था ना यूँ टूटने देंगे अब खुद को
भूल गए मगर हम भी मिट्टी के बने हैं।
बयां करना बखूबी आता है दर्द हमें भी
मजबूरियों के नाम पे होंठ ये सिले हैं।
रिश्तों के बाजारों की रौनक तो देखिए
हर शय भीड़ में भी तन्हा ही मिले हैं।
पूजा झा
जंदाहा,हाजीपुर(वैशाली)