कमल दल पे ही तेरा आसन बिछाऊँ,
धवल वस्त्र से तेरा आंचल सजाऊँ |
सुगंधित सभी फूल उजले चुनूँ मैं,
गले के लिए हार सुन्दर बनाऊं |
नहीं कोई दीपक जो बांटे उजाला,
तेरे ध्यान में दीप मन का जलाऊँ|
न मधु है न फल और मिष्ठान मेवे,
मधुर शब्दों से भोग तेरा लगाऊं |
हो झन्कार वीणा से तेरी तरंगित,
मिलाकर मैं स्वर गीत भी गुनगुनाऊँ|
तू देती रहे प्रेरणा मुझको निशिदिन,
तो कविता ग़ज़ल गीत कुछ लिख मैं पाऊँ|
मिले मुझको जितना भी मां शारदे से,
वो सब लोकहित में ही मैं सौंप जाऊँ|
अशोक श्रीवास्तव
प्रयागराज