चलते चलते यूँ ही रूक जाता हूँ मैं
कहना चाहूँ जो पर न कह पाता हूँ मै
उल्फतों का समंदर है हिलोरे खा रहा
भावनाएँ व्यक्त न कर पा रहा हूँ मैं
दोस्त दुश्मन बने जिन्दगी की राह पर
अपने पराये न खोज कर पा रहा हूँ मैं
हार मान लूँ जो यहाँ ये मुनासिब नहीं
पर स्वयं से ही ना जीत पा रहा हूँ मैं
तोड़ दूँ असूलों को यहाँ गवारा नहीं
असूलों पर नहीं मैं टिक पा रहा हूँ मैं
जो भी मिला राहों में वो दगा दे गया
यकीन किसी पे नहीं कर पा रहा हूँ मैं
मतलबी दुनिया में कोई भी मीत नहीं
प्रीत की रीत नहीं निभा पा रहा हूँ मैं
सुखविन्द्र ने प्यार में ठोकरें ही खाई
प्रेमपथ पे रसिक ना बन पा रहा हूँ मैं
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)