अतीतःएक परछाहीं

 



प्रज्ञा त्रिवेदी शुक्ला


कुछ लोग एक कप चाय पर कितने काम कर जाते हैं, खास-तौर पर जब वह आपकी कामवाली हो। चाय के बहाने न जाने कितनी अतीत की यादें शब्दों में बयॉ होने लगती हैं। सुबह-शाम तक ढ़ेरों कामों की लिस्ट बनाते हुए उसकी बातें मस्तिष्क में कुछ नई ऊर्जा देती है। आजकल समय ही कहॉ है अपनों को बात करने के लिए---। ढ़ेरों इलेक्ट्रॉनिक गैजेट होने के बावजूद भी हम न जाने किस दुनिया में रातों-दिन व्यस्त रहने लगे हैं। पहले इतनी सुविधायें नहीं थीं पर फिर भी रिश्तों में मिठास बनी रहती थी। हमें इंतज़ार रहता था अपनों की चिटिठयों का। पर आज जहॉ फेसबुक, व्हॉटसप, फेसटाइम सब कुछ है, वहीं दूरिया भी बहुत हैं। लगता है कम्युनिकेशन के बढ़ते साधनों के बीच एक चुप्पी छाती जा रही है।
शांति मेरी कामवाली, असली नाम खतीजा है, पचास साल से ज्यादा की न होगी पर समय की मार ने उसे सत्तर साल की बुढि़या में तब्दील कर दिया है। बिहार की रहने वाली, छोटे कद की दुबली-पतली औरत है। वो जब चलती है तो मानों हवा से बातें करती हुई। उसे देखकर लगता है कि ये अब गिरी कि तब गिरी मगर गिरती कभी नहीं है। अपने आप में व्यस्त, खुद से खुद की अन्तहीन बातें करते हुए। कभी चश्मा, कभी साड़ी, कभी झोला ठीक करती हुई। झुर्रियों के बीच भी चेहरे में एक लुनाई बनी ही हुई है। छोटा-सा चेहरा, ऑखे बड़ी-बड़ी, बाल बड़े, काले-सफेद, बड़े करीने से बॅधे हुए। उसे इसी हालत हमें देखते-देखते करीब दस साल बीत गया है। वो जब भी बात करती है हमेशा यही बताती है कि ‘‘पहले वाला मेनसाब हमको इतना मानता था--- जैसन हम पॅहुचता वो सबसे पहले कहती तू पहले चाह पी ले और नाश्ता करले फिर काम कर’’। यह बात मैं तब-तब सुनती थी जब-जब मैं उसे नाश्ते में कुछ नहीं देती थी। फिर तो हर रोज का नियम हो गया जो कुछ बासी-ताजी बचे, कोई नहीं खायेगा, शांति खा लेगी पर जैसा उसका नाम था स्वभाव बिल्कुल विपरीत, चिढ़चिढ़ी-सी, घर में घुसते ही अशांति फैल जाती थी क्योंकि किसी न किसी बात पर उसे बात करनी ही करनी होती थी। घर में जब कोई होता था तो मैं उसे इशारा करती थी और वह चुप हो जाती थी। ‘सारी मेनसाब’ बोलकर, वह हमेशा जल्दी में रहती थी लेकिन जब कोई उसकी बात सुनने लगता तब वह भूल जाती कि उसे देर हो रही है। कभी-कभी तो कहना पड़ता ‘‘तुमको देर नहीं हो रही है?’’। उसके पास बड़ी शिकायतें थीं नई मेमसाहब लोगों के लिए। ‘‘मेनसाब सब लोग कहते हैं कि अब हम काम ठीक से नहीं कर पाते हैं--- अब हमको ठीक से देखाई नहीं देता है, बर्तन में जूठन लगा रहता है, पोंछा भी एक घंटे में दू ठो कमरों में साफ न लगाती हॅू,। अब हम का करें, सारा जिनगी निकल गया काम करते-करते, अब ये नया मेनसाब लोग हमें काम करने का तरीका बतायें हैं। अरे! हम कौनों का आज के है का !’’ कहते-कहते शांति अपना चश्मा ठीक करते-करते पता नहीं किस दुनिया में चली जाती है। उसे देखकर लगता है मानो जो इसे याद रखना था, याद न रहा, जो भूल जाना था, भूला न कभी। उसने मेरी ओर खोई-खोई ऑखों से देखा, ऐसे देखा जैसे खुद में वह खुद ही नहीं है, वह सुन ही न रही थी जो मैं बोले जा रही थी। 
पहली बार जब मैंने शांति को अपने घर में काम पर रखा तो मुझे सबसे पहले यही अंदेशा हुआ था कि पता नहीं यह औरत काम कर भी पायेगी कि नहीं। मैंने उससे पूछा भी कि ‘‘तुम काम कर भी पाओगी? ’’। क्योंकि काम बहुत ज्यादा था और वैसे भी शिफ्टिंग में तो घर की सफाई बड़ा काम होता है। उसने जिस जोश से कहा, ‘‘मेनसाब, इस पूररे-- एशिया हाउस में हमरा नाम है। कोई आज तक पैदा ही न हुआ है जो ये कह सके कि शांति यह काम नहीं कर सकती है, हमरा पुराना मेनसाब लोग आज दिन्न तक हमको याद करता है। कहता है शांति तेरे जैसा कोई पोंछा नहीं लगा सकता है! तू पोंछा नहीं लगाती है, पुज्जा करती है ! हम तो बस यह मानते हैं कि अल्ला-ताला सब देख रहा है, उससे बढ़के कोई नहीं है, जो हम काम में चोरी करेंगें तो खुदा हमको कुफ्र देगा। हमरा काम अल्ल-बल्ल वाला नहीं है’’। उसे देखकर मुझे लगा कि कोई काम यहॉ कर पाये या न, पर यह औरत ज़रूर कर लेगी। कुछ तो बात है इसमें। मैंने इसे काम दिया और जिस लगन के साथ शांति ने काम किया, काबिले-तारीफ था।
 दिल्ली जैसे महानगर में एक अच्छी कामवाली का मिलना बड़ी बात है और वो भी ईमानदार--- मेरे लिए ये दोनों ही बातें सोने पे सुहागा हो गईं। उसका सिर से पॉव तक साड़ी में लपटे रहना वो भी सारे काम करते हुए, बाकायदा फुल बाहों का ब्लाउज, किसी मैडम का दिया हुआ ढ़ीला-ढ़ाला बिना किसी मैचिंग का। कितने भी काम करे मगर बार-बार सिर का पल्लू संभालती हुई जैसे-हमारी दादी-नानी। एक बार बातों-बातों में मैंने उससे पूछा, ‘‘शांति तुम साड़ी क्यों पहनती हो ?’’ जबकि तुम्हारी बिरादरी में तो सभी औरतें सलवार-कमीज पहनती हैं--। उसने काफी संयमित-सा उत्तर दिया-‘‘मेनसाब, हम जिस समाज में काम करना शुरू किया, वहॉ हिंदू आबादी ज्यादा रही, सो हम अपना नाम और वेशभूषा, दोनों ही बदल लिया। पर ज़बान न बदला--। हम ज़बान का बड़ा पक्के रहे मेनसाब। हम एतना-सा भी गोनाह न किये कि हमको अल्ला-ताला के सामने पेश किया जाये, एकदम पाक-साफ----। उसके कहने से ही इतनी सच्चाई प्रकट होती थी कि मुझे लगा- जो यह कहती है करती है।
 एक दिन रोते-रोते घर में घुसी, लाल ऑखें किये और छिपाने की भरपूर कोशिश करती हुई। उस दिन वह बड़ी शांत दिखी अपने नाम के अनुरूप। काफी देर तक जब उसकी आवाज़ न सुनाई दी मैंने पूछा, ‘‘आज क्या हो गया ? शांति की आवाज़ नहीं सुनाई दे रही है। तबियत तो ठीक है ? शांति---शांति----जब कई आवाजें लगाईं तो वह भुक्का भाड़ के रोने लगी। मैने सोचा रो लेने दें---थोड़ा मन हल्का हो जाये, अच्छा महसूस करेगी। वही हुआ थोड़ी देर में सामान्य-सी लगने लगी। बताने लगी, ‘‘रात, लड़का-बहू ने घर से निकाल दिया। कहे लगे ‘‘तू अपना इंतजाम कर ले। तेरे कारन घर में कलह होता है। तेरा ज़बान बहुत चलता है। इस उमिर में एतना तेज़ी ठीक न है’’। मेनसाब, अगर हम तेज़ बनकर न रहता तो हमको सब नोच के खा जाता। आसान नहीं होता है कि कोई औरत इकले बच्चे को पाल-पोस कर बड़ा करे। हम दिन को दिन न समझा, रात को रात न समझा औ हमार लड़का कहता है कि हमरे कारन उसके घर में कलह होता है। अरे ! कलह होता है उसका ज़ोरू के कारन, जो टेम पर खाना भी न पकाती है। हम सारा दिन सबका काम करता है, ओ घर पहॅुचते ही सारा का सारा बर्तन मांजता है वो बर्तन भी न धोती है। हम चार-पॉच घर का काम इकले करता है, वो एक घर का काम न कर पाती है। रोज इसी बात को लेकर बहस होता था इसी बात से देनों मियॉ-बीवी हमको रात बारह बजे घर से नेकाल दिया। मेनसाब, हम सारा गिरस्ती जोड़ा, जिनगी भर, ओ मेरा कपड़े का झोला उठाया ओ उसमें सारा मेरा साड़ी-बलाउज भर के बहू बाहर फेंक दिया। बोला, ‘‘ले आपन सामान औ जा--- जहॉ तुझे कोई बनी-बनाई फ्री में खिलावे। फ्री में तो हम यहॉ भी न खाते थे, सब्जी, अंडा हम खुद लाकर देते रहे औ थोड़ा-बारा पैसवा बचा के रखे रहे कि मरने से पहले असलमवा के एक कमरा बनवा के दें। पर हम इन लोगों को कभी ये बात न बताया था। अच्छा किया न बताया नही ंतो कोई काम के लिए मॉगता तो हमको देना पड़ता। हम असलम को मैट्रिक तक पढ़ाया-- लिखाया--आगे इसका मन न लगा नहीं तो हम इसे कभी गाड़ी-घोड़ा साफ करने के काम में न लगाते। यही बहू जो हमको घर से नेकाल दिया, बियाह के बाद इसे हम एक महीन्ना घर का कोई काम न छूने दिया, बड़ा प्यार दिया, अपनी बिटिया के जैसेन रखा वही बहू हमको घर से नेकाल दिया। हम आज फिर इकला हो गया। पहले जब असलम के अब्बू हमको छोड़कर गये तब हमको एतना दुख न हुआ जेतना कल रात से। बहू तो पराया खून है तू तो हमरा खून है, कैसेन एतना निठुर हो गया असलम। अब हम कैसेन रहेंगे अपने असलम के बिना। बिना उसका मुॅह देखे हमको चैन न है। रात जब वो हमको नेकाल दिया, हम अपनी भौजाई के घर चला गया। हमरी भौजाई हमको रखी औ बोली अब तू असलम के पास न जायेगी। यहीं रह। मगर जैसेन भोर हुआ, हम चुपचाप उठा ओ अपने लड़का का देखे के लिए उसका घर के सामने से निकला। हम देखा वो दातुन कर रहा था दुआरे में ही, पर उसे एक नज़र देखकर हमको न मालूम क्यों अच्छा लगा। शांति अपनी धुन में काम करते हुए न जाने किस दुनिया-जहान की बातें किया करती थी उसी रौ में कभी अपनी आप-बीती भी सुनाने लगती थी। ‘‘मेनसाब, हम चौदह साल का था जब हमरा निकाह हुआ, एक साल बाद जब हम अपनी ससुराल गये तो मेरा सास हमको बहुत प्यार किया, हम था भी खबसूरत, जवानी की सूरत अलगै होता है---। जब हम अपने मरद को पहली दफा देखा तो हमरे बदन में एकदम्म से झुरझुरी हो गया। एकदम गोरा ---जैसन लाल भभूका। छ फुटा, गबरू जवान---। ऐसन चप्पलवा फटफटा के चलता के देखते बनता। उसके बोलने से पहिलेहि उसका चप्पलवा बोल देता कि हम आ गये। लेकिन कब्बो हमको परेशान न किया। वो देखा अभी ये लड़किनी है सो एक दिन हमसे बोला, ‘‘ रे खतिजिया, तू हमनी से डर मत, हम तुमको परेशान करने के लिए बियाह न किये हैं औ जब तक तू न चाहेगी हम न छुऐंगें’’। वो जब घर आता हम एक-दूसरे से बात न करते मगर एक-दूसरे के भाव पढ़ लेते रहे। मेनसाब ,प्यार में बोलने का ज़रूरत न होता है, भावना का ज़रूरत होता है। 
जब हम मैके जाते, वो हमको दू ठो रूपिया देता, औ कैसे देता ! ये हम आपको का बतायें---! वो जमीन पर पैसवा ढ़ुनका देता, पहिले-पहिल हम नहीं जाना कि ये पैसवा हमको दिया है। बहुत बाद में हम जाना कि ये हमको पैसवा दीहिस है। दु ठो रूपिया का उस समय बखत होता था। पॉच रूपिया किलो देसी घी आता था। हमरे अब्बू हर महीन्ना पॉच रूपिया का घी लाता था। पर अम्मी उसी घी में से थोड़ा-सा चुरा के अलग रख दिया करती थी। हम सोचा करते थे कि अम्मी ऐसन काहे करती है ! जब अब्बू हर महीन्ना घी लाता है, पर अम्मी से डरते थे सो कभी पूछा नहीं पर जब हमरा बियाह हुआ तब हम देखा कि चोरी किया हुआ घी अम्मी बियाह में निकाली और ओ अब्बू के घी के पैसवा बच गया! तो जब हमरा मरद पैसवा ढुनका देता तो हम उठा लेते थे पर हमको बहुत सरम लगता था। ऐसेन दु साल तक चला, वो नौकरी पर न था, जोगाड़  करके दु ठो रूपिया लाता था। परिवारी-जने बहुत कुछ उसको कहा ! उलटा-पुलटा ! जो मुहॅ में आया बका! हमरा सास, सलीम को बहुत प्यार करती थी, सलीम हमरा मरद, पर जब बोली बोलती थी तो एकदम्म ठेठ! ऐसेन मुॅह बिचका कर बोलती थी कि देखते बनता था ! एकदम्म ऑखें चौडि़या के, मॅुह फैला के, लगे जैसेन अभी कच्चा खा जायेगी! एक दिन वो आड़े हाथों सलीम को पकड़ लिया, ‘‘ऐ सलीम, तू कोई काम नहीं करता है, बैठे-बैठे मेहरारू का मुॅह देखा करता है! का हो कुछ काम-धाम कर। ऐसेन कब तक चलेगा। कुछ उॅ-ऑ कर। बोलता काहे नहीं है रे’’। ससुर सीधा था पर जब सास बोलती थी तो वो भी अपना जबान साफ कर लेता था, ‘‘वैसन तो बहुत बात करता है पर जब कोई काम-धाम की बात करता है तो तू मुॅह में ताला मार लेता है का!’’। मेनसाब, जिस औरत का आदमी निखटटू होता है उसकी मेहरारू का कोई इज्जत न करता है। जिस घर में हम एतने दुलार-प्यार में बियाह के बहू बन के आये थे उसी घर में हमको धीरे-धीरे कामवाली बनते देर न लगी। जब सलीम को कोई कुछ कहता, हम और ज़ोर-से घर का काम निपटाते ताकि सबको लगे कि मरद कुछ न करता है तो का हुआ मेहरारू तो करता है पर औरत का काम किसी को देखाई कहॉ देता है। हम भोरे से उठ जाई ओ रात-पहर तक काम करें लेकिन कौनो सुनवाई न। कोई कभी न कहता कि खतीजा कित्ता काम करे है! धीरे-धीरे हम आस-पड़ोस का काम भी करने लगा, किसी को अनाज साफ कराना हो--- शादी-ब्याह में कोई काम हो-- तेल-मालिश-- उबटन, ये सब काम हम कभी न किया था मगर सब अपनी बुद्वि लगाके करने की कोशिश किया। ओ मन में वही गाना गुनगुनाई-‘भला है बुरा है जैसा भी है मेरा पति मेरा देवता है---’। यही गाना ऊ समय खूब चला था। एक दिन हम भूल गया कि गाना ज़ोर-से गा दिया, ओ मेरा सास गाना सुन लिया औ ज़ोर-से चिल्लाये लगी, ‘‘ ऐ खतिजिया तू कौन-सा गाना गा रही है रे । मेनसाब, हमरा अक्क-बक्क सब भूल गया। हमरा सॉस की आवा-जाही रूक गई। अरे ! सास तो सास ! औ वो दॉत किटकिटा के चिल्लाइ-‘‘तुम्हार भतार बाद में है पहिले वो हमनी का लड़का है। जित्ता तू ओखा प्यार करती है--- उस्से ज़्यादा हम उसे प्यार किया है, करते हैं औ करेंगें। तू अबहिनें से हमरे लड़का परे कब्जा करे लाग---। हम पाला-पोसा, इत्ता बड़ा किया औ तू हमनी का ठेंगा देखावे है’’। मेनसाब, हम डर गये पर हिम्मत करके हम कहा, ‘‘अम्मी, हम तुमको ठेंगा न दिखाते हैं। घर मा सब जने उनको कलकत्ता भेजें खातिर काहे कहते हो, यहीं कोई काम करवा दे’’। हम ऐतना कहा भर सास और ज़ोर-से भड़क गई, ‘‘ हॉ बहुत पैसवा बॉध के लाई है तू मैके से तो हम कुछ करवा दें---। ओ जो पेट मा लेके सात महीना का घूम रही है एक लात में बाहर आ जाई, बहुत मुॅह चलाती है। चल भाग-- यहॉ से’’। हम समझ गये कि अब ऐसेन ही हमको सबकी लातें-बातें सुननी पड़ेंगी।
 सलीम की अम्मी ने उसके बियाह के लिए कितनी मन्नतें मानी थीं। उसने गॉव की मजार पर चादर भी चढ़ाई। उसे लगता था कि बियाह के बाद लड़का काम-धाम करने लगेगा। शादी के बाद सलीम और ज्यादा घर-घुस्सू हो गया। सलीम की अपनी कमाई-धमाई तो कुछ थी नहीं। अब्बू जो मेहनत-मजूरे करके कमाते उसी में घर का खरचा चलता। घर में जमीन-जायदाद तो थी न सो सलीम के लिए भी मेहनत-मजूरे करने के अलावा और कोई उपाय न बचा। देखने में सलीम फिलम के हीरो जैसन लगता था, गॉव की हर लड़की उसे छिप-छिपकर देखती, इसी से वो गॉव में कभी मजूरी करने के तैयार ही न हुआ। कै दफे नाते-रिश्तेदार कहे, ‘‘अब ये हीरोगिरी छोड़ दे सलीम। तुझे सुंदर बीवी मिल गया है---। कम से कम उसके लिए तो काम-धाम कर’’। पर सलीम के सिर पर तो जूॅ तक न रेंगता था। बस खाता, सोता और ठुसुक-ठुसुक के पादता और ज्यादा कहने पर फिलमी गाने गाता। घर में तो लड़ाई-झगड़ा चलता ही रहता है। दो बर्तन तक आपस में ढ़नमन करता है तो हम लोगों का क्या बिसात है। बस एक काम है कि घर के परानी आपस में परेम से रहें। मगर घर में रोज कुछ न कुछ बखेड़ा होने लगा पैसवा-रूपिया के ख़ातिर। कोई केतना बरदाश्त कर सकता है। हम अपने मरद से कहा, ‘‘अब हम हियॉ बच्चा न जनेंगें, हमका हमरी अम्मी के घर छोड़ दे ओ तू कोई काम-धाम कर, नहीं तो कैसे बाल-बच्चा पलेगा’’। हम जैसन उसको काम-धाम के खातिर बोला वो राजी हो गया ओ बोला, ‘‘रे खतिजिया हमको कमाये के खातिर कलकत्ता जायें का पड़ी--- तू हमनी के बिना रह लेगी न! हम तो आज तक तेरे मारे कहीं न गये कि तू कैसे रहेगी मेरे बिना’’। उसका रोऑसा सूरत देखकर हमको बड़ा कष्ट हुआ। कलकत्ता का जैसेन नाम सुना, हम सन्न---। पता नहीं, कलकत्ता नाम सुन के ही हमरे कलेजे मा लगे जैसे कोई छुरी चला दिया हो---।  उ समय कलकत्ता जायें का रेवाज रहा, जिसे देखो वही कमाये के लिए कलकत्ता चला जाये। हम कहा, ‘‘तू कलकत्ता जायेगा हमका छोड़ के। हम तेरे बिना कैसे रहेंगें’’। वो चरमराती कुरसी से उठा और हमरे बगल में बैठ गया, ऐसेन बैठा कि टुटही खटिया मचमचा के और टूट गया--- ‘‘देख खतीजा, तू जैसा मरद पाई है वैसा जल्दी-जल्दी किसी को न मिलता है। पर अब हमको लगता है कि सिरफ बैठे-बैठे काम न चलेगा, कुछ करना पड़ेगा। हम कलकत्ता जाते हैं औ एक ही बार में एतना पैसवा कमा के अम्मी-अब्बू को दे देते हैं कि घर में लड़ाई-झगड़ा बंद हो जाये! हम तेरे पेट में है तू ऐसेन सोच! मेरा सरूप तेरे ही साथ तो है! हम अलग-अलग रहकर भी एक ही हैं, जैसन सीता माई राम को छोड़ के इकले रावन जैसे अत्याचारी के साथ रही पर अलग थोड़े न रहीं राम से, वैसन तू हमसे अलग थोड़े है’’। सलीम काला अक्षर भैंस बराबर था पर उसको एतना गयान है ये हमको अभे तक नहीं मालूम था। पहिली दफा हमको उसके लिए लगा जैसे हमको गयानी पुरूख मिला है। कैसेन लपर-लपर भाखन देता है। हम वहीं परे बैठ गये मानो देमाग की बत्ती जल गई। उसका चेहरा एकदम गयानी जैसेन चमकने लगा---धन्न है! पर हम उसको कुछछ बोला नहीं, एकदम चुप्प उसका बात सुना---जैसा हमको कोई ज्ञान के बात न मालूम होय। वो बोलता रहा--लगातार--एक घंटा बोला। एक से एक गयान की बात। मेनसाब, उसे रमैन, महाभारत सब मुॅंहजबानी याद रहा। वो सब सुनाया हमको। वो हमको ये भी बताया कि पहले वो नौटकिया में काम किया करता रहे मगर फिर बियाह के पहिले छोड़ दिया। का है कि जब वह सुबह पाखाना के लिए जाया करता तो गॉव की सब लड़कियॉ देख-देख चिड़ातीं-‘‘ये देख सीता मइया संडास के लिए जा रही हैं ! सलीम एक नंबर का सरमीला सो छोड़ दिया नौटकिया की कमाई!
 हम मैके चला आया ओ सलीम कलकत्ता। सच बतायें हमको मैके में अच्छा न लगता रहै। अढ़ाई महीना बाद जब असलम, मेरा बाबू हुआ, वो बड़ा खुश हुआ पर काम के चलते आ न पाया। मेनसाब, एक दिन हम सो रहे थे। ऐसेन सपना देखा-बाबू को गोदी में लिए-लिए हम कहीं जा रहे हैं, नहीं मालूम कहॉ! पर एतना ज़रूर लग रहा है कि वो बहुत सुंदर जगह है---। अगल-बगल खूब सुंदर पेड़-पउधा लगे हैं। चारों तरफ साफ-सुथरी सड़क बनी है। हम बाबू को लिए चले जा रहे हैं तभी अचानक बाबू को सड़क किनारे छोड़ दिये ओ हम उड़ने लगे हैं! हम उड़ते जा रहे हैं! चारो तरफ काम करने वाले मजूर खड़े हैं। उड़ते-उड़ते जब हम नीचे आने लगते हैं अपने आप, तो जमीन में एक ज़ोर से पैर मारते हैं ओ फिर ऊपर की ओर उड़ने लगते हैं! सब मजूरा कह रहे हैं, ‘‘अरे! ये तो सलीमवॉ के मेहरारू है! आगे बढ़ जा, सीधा जा, उधरै काम करता होगा, मिल ले’’। हम और आगे उड़ते जाते हैं, जहॉ खूब बड़ा-बड़ा-सा मशीन लगा है! एक-दु ठो औरत लोग भी काम कर रही हैं। हम देखा एक मशीन से खूब पानी निकल रहा है औ अचानक उसी में से पिसा हुआ मास-मज्जा निकलने लगा--- हम ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहे हैं---- ‘‘ये का है!’’ सब कह रहे हैं अरे! ये तो मशीन के भीतरे ही कोई घुस के पिस गया है! पर हमको सलीम कहीं नज़र न आ रहा है! हमरी ऑख खुली तो देखा छाती पे हाथ धरे सो रहे थे। तब हम जाना इसी के लिए एतना बुरा-बुरा सपना देखा---। एक महीना बाद हमरे ससुरारी से खबर आई कि कुछ ज़रूरी काम से अब्बू को बुलाये हैं, ये न बताये कि काम का है पर पता नहीं काहे, हमरा दिल घबराये-- हम मने-मन में सोचे कि सलीम ठीक होयें! बार-बार हमको लगे कि सलीम आ गये हैं औ चप्पलवा फटफटा रहे हैं--! जैसेन उनकी आदत रही! हम इधर-उधर देखें मगर कोई दिखाई न दे! कइसन जी करे कि का बतायें! ऊ घड़ी हमें चैन न! जब शाम को अब्बा वापिस आये तो बाहिरे से ज़ोर-से कंपकंपी आवाज़ में चिल्लाये, ‘‘रे खतिजिया! जल्दी कर----असलम के अब्बू अब इस दुनिया में न रहे---। जिस कारखाना में काम करते थे उसी में मशीन के नीचे आ गये! पहचान में न आ रहे हैं! जल्दी कर नहीं तो लाहस चली जायेगी। पहिलेहि कलकत्ता से हियॉ तक लाने में शाम हो गई’’। अरे एतना सुनना था कि हम सॉस लेना गये! बड़ी मुश्किल हो रहा था सॉस लेने में---। छाती में टीस-सा उठता--। हम पर कटे चिडि़या की तरह जमीन में लोटे लगे--- हम एतना देर तक जमीन में लोटते रहे, हमको होस न रहा----मानो छत पर लगे पंखे की तरह सगरी दुनियॉ घूम गई ओ घूमते हुए न जाने कितने पल मेरे इरद-गिरद डरावने चेहरा दिखाते हुए घूमते चले जा रहे थे। ये कैसन हो सकता है! असलम के अब्बू हमको छोड़ के कैसे जा सकते हैं! अभे तो असलमवॉ का मुॅह भी न देखा था! अतीत नहीं कभी पीछा छोड़ता है वो तो परछाहीं की तरह हर पल साथ चलता रहता है। हमरा देमाग काम करना बंद करता जा रहा था। दु साल में जितने भी मधुर क्षण थे--- एक-एक कर सब देमाग में घूमने लगे----बहुत सोचने या याद करने की ज़रूरत न थी। वो हमको देखा, हम उसको देखा, हॅसा-- फिर बोला, ‘‘रे खतिजिया! हम कहीं न गये हैं! हम तो तेरे ही पास हैं! देख वही बूशट! वही पैंट! वही चप्पलवा--फटट-फटट वाली, वो हमको चलकर भी देखाया। असलम को गोदी में उठा के चुमिया-मिठिया किया मगर ऑखें हमरे ऊपर ही लगी रहीं---। मेनसाब, वो बार-बार कहा, ‘‘असलम हमरा ही रूप है, तू सोच कि हम तोरे साथ हैं--- कैसे मान लेते ये बात?। मरद-मरद होता है--- औलाद-औलाद---। वो हमको टा-टा करके चला गया---। कोई न देख पाया उसे, हम देखा!
 अब्बू बोलते जा रहे थे, ‘‘हमरे पहॅुचने के चार घंटा बाद लाहस आई, देही का रंग काला पड़ चुका था मानो कोई करिखा लगा दिया हो, गाल पूरी तरह से धॅस गये थे, कपाल खुल गया था---’’। धीरे-धीरे अब्बू की आवाज़ मेरे कानों को सुनाई देना बंद हो गई। हम महसूस किया कि देमाग पूरी तरह से खाली हो चुका है--- कुछ सोचने की कोशिश करने पर भी समझ में न आता कि भीतरै से कैसा खाली-खाली है या भरा-भरा। हमरे मरद को कोई मारना तो दूर छू भी नहीं सकता था उसका शरीर ही तो उसका सुंदरता था, केतना लंबा-चौड़ा--- भरा-पूरा आदमी गॉवें में दूर-दूर तक कोई न था! अगर पढ़-लिख जाता तो बाबू बन जाता, मजूरी तो कब्बो न करता! ओ मजूरी किया भी तो ऐतना दूर जाने का ज़रूरत था, हियॉ ही कही ऑख के सामने कुछ कर लेता--- हम कितना चाहा कि दूर न जाये पर किस्मत में जो लिखा होता है---- वही होता है जो मंजूरे खुदा होता है। सलीम मेहनती बहुत था--- बहुत काम किया करता था----। कभी-कभी रातो-दिन जागता, ऐसा जागता कि पूरा घर सोये रहे औ वो जागे ओ कहे देख खतिजिया सब सो रहे हैं ओ हम जाग रहे हैं। हम चार दिन जाग सकत हैं लगातार बिना किसी झपकी के। ऐसन हुआ होयेगा। लोग-बाग को दिखाये ख़ातिर जागता रहा होयेगा। नींद पूरी न हो पाई जिसके ख़ातिर मशीन के नीचे ही खुपडि़या आ गई। मशीन तो मशीन! उसे का मालूम कि हमरा सलीम 3-4 रातों का जागा है। जब तक दूसरे मजूरा उसे हस्पताल पहॅुचाये तब लग वो एक नई दुनिया में चला गया।
गॉव में जब किसी के घर में कोई मिटटी हो जाता था तो हम देखते थे कि कैसे औरत लोग विलाप करती हैं ! उन्हें देखकर हमको हॅसी आता था पर उस दिन हमको होस न रहा कि कोई हमको देख भी रहा है---। बार-बार हमरी दॉती बॅध जाये--- हर तरफ हमको असलम के अब्बा देखाई देते! हमको हर समय एंतजार रहता कि साइत कोई घड़ी वो आ जायें यह जानते हुए भी कि अब न आयेंगें! पागल की तरह उसकी फोटू को सीने से लगाये बैठा रहे, उसका अपने पास होना महसूस करते। सबसे मुश्किल था असलम को पालना! अपने दुखी जिन्दगानी के रेगिस्तान में हमको अब इकले ही नंगे पैर चलना था। हमको याद आता, मुॅहदिखाई के दिन पूरे घर में शोर मचा था ऐसा सुंदर बहू खानदान में न था’ आज वही बहू को कोई ससुरारी से पूछने भी न आया कि मरी कि जी। मेरा अम्मी मेरा मन पढ़ लेती थी वो ऐसन एकटक्क ऑख में देखता था कि हम उससे कुछ भी न छिपा पाते--- हमरे खालीपन को देखकर उसके मन में भी कुछ कसकता था। मॉ तो वैसे भी सिखाने-बताने, विश्वास दिलाने के लिए विवश होती है। वह जानती थी अपनी खतीजा के खालीपन को कैसे भरा जाये सो एक दिन बैठे-बैठे सिर सहलाते-सहलाते बोली, ‘‘ऐ खतिजिया, कैसेन तेरा जिनगानी कटेगा इकले---। कब्बो सोचा है इसके बारे मा---। असलम अभी छोट है---। तू कहे तो मौलवी जी के लड़का से बात चलाई! बढि़या घर है, लड़का भी कमाता है, खुद की अपनी रिक्शा है। खायें भर का तो कमा ही लेता है औ ओखरे दु ठो लड़का हैं- एक चौदह साल का दूसर तेरह साल का। उनका भी माई मिल जायेगी ओ तुमको भी ठेकाना हो जायेगा। नहीं तो बड़ा मुश्किल हो जायेगा। हमको भी तेरे बाद भी दु ठो बहिन को ब्याहना है! देख तेरा भाई-भौजाई अलग ही दिल्ली में अपन घर बना लिए हैं सो तू अगर हॉ करे तो----’’। अम्मी की आवाज़ में हमें पहली बार अपने बोझ होने का अहसास हो गया। हमरी ऑखिन के सामने मौलवी के लड़का का तस्वीर घूम गया-काला, ठिगना, बेहद गुस्से वाला, दुबला-पतला करीब चालीस साल से कम उसकी उमिर न होगी---- और जैसेन वो अपनी मेहरारू को रखता था वो सब हमको पता था। छोटा से छोटा बात में वो उसे जुत्ता से मारता था और मारते-मारते बेहोश कर देता था---। मौलवी का लड़का जेतना गुस्से वाला उससे ज्यादा मौलवी मतलब ‘बाप सेर लड़का सवासेर’। वो जैसन चिल्लाता कि घर मा बच्चन-बुढढन की कच्छी गिली हो जाये---। माई की बात सुनकर हमको लगा कि काहे आज-कल मौलवी और उसका लड़का रोज हाल-चाल लेने आया करे हैं। जैसेन बकरा को हलाल करने के पहले उसका पूजा किया जाता है वैसेन वो हमको फॅसाये चाहता है। 
अपने मरद के जाने के बाद हम कभी अपने ससुरारी नहीं गये, का करते जाके, अब वहॉ कौन बैठा था जो बात-बात में हमरा पक्ष लेके खड़ा होता। वही एक छत, वही चार दीवारें ओ उनसे चाहें जितनी बातें कर ले कोई या बातें करते-करते सिर पटक ले, उससे होता कुछ भी नहीं है। कोई हमरे दिल का हाल का जानेगा। हमको सलीम की इतनी याद आती थी- दिन में, रात में, सुबह-शाम, हर समय याद आती थी। कोई कैसेन किसी को हर समय याद कर सकता है! यह बात हमको उसके जाने के बाद मालूम पड़ी। जिस दिन हमको उसके मरने का खबर मिला उस दिन हमको उसका आखिरी बार घर से जाना याद आया। जब वो घर से जा रहा था तब जाने काहै हमरे दिल में ऐसन हूक उठा कि हम ऊ घड़ी उस्से ज़ोर-से चिपक गये---। अभी तक हमको उसके हाथ का कसाव याद आता है---। अब भी हम उसे महसूस करते हैं! हमरा एक-एक दिन कैसे कटता है! लगता है कि शायद राह चलते कभी सलीम हमको मिल जाये! कभी-कभी अपने अकेलेपन से डर लगता है लेकिन असलम की याद उसमें मलहम का काम करता है। आखिरी बार का देखा हुआ हमेशा हमको याद रखना पड़ेगा। अब वह हमको कब्बो न मिलेगा! जिस उम्र में लड़कियॉ स्कूल जाती हैं, उस उम्र में हम सिर परे चिंता का पहाड़ लिए घूम रहे थे! इस सगरी दुनिया में हम असलम के साथ निपट इकली हो गये।
औरत खूबसूरत हो या बदसूरत लेकिन सबसे पहले वह औरत है उसकी देही में दिल और दिमाग दोनों उसी रूप में सजग है जितना पुरूष के। औरत चाहे जितना जानती हो कि वो सुंदर है पर मुॅह से कभी कहती नहीं है उसे दूसरे के मुॅह से सुनने में अच्छा लगता है। पर अब हमको सुंदर सुनना अच्छा न लगता था। अपने सुंदर होने या न होने का कोई फरक न पड़ता। अम्मी की बात सुन के हमको पहली दफा लगा कि हम इन परे बोझ बन गये हैं, हम सन्न! एकदम्म चुप्प! अम्मी कई दफा पूछा, ‘‘ का रे खतिजिया, कुछ सोचा,’’ हम कुछ जवाब न दिया! काहे कि हम हॉ बोलेंगे नहीं न बोलने पर कारन पूछा जाई, इससे भली चुप्प। एक दिन अब्बू ओ अम्मी दोनों एक ठियॉ बैठ के हमसे बात किये ओ पूछे कि अपन बात तो बता! क्या चाहती है? कब तक ऐसन चलेगा? अब्बू सिर झुकाये बैठे ओ बोले, ‘‘जब लग हम हैं तू चिंता मत कर मगर जिस दिन हम न होंगे उस दिन का सोच! कौन तेरा और तेरे बेटे का खरचा उठायेगा? तू अपने ही भाई-बहन के बीच में ही सबको दुश्मन दिखेगी! तब क्या होगा, एही ख़ातिर हम चाहते हैं कि तेरा निकाह दुबारा कर दें। अगर मौलवी का लड़का न परसंद हो तो बोल, हम अभी जि़दा हैं कोई और देख लेंगे’’। तब हम बोला, ‘‘न अब्बू, ये हमसे न हो पायेग!, बस थोड़ा दिन तुम हमरा साथ दै दे फिर हम अपना जोगाड़ कर लेंगे! हम किसी पर बोझा न बनेंगे’’! हमरी बात सुनके अब्बू रोंये, अम्मी रोंये, सगरा घर रोवे। अम्मी बोली, ’’रे खतिजिया! कहीं अपन बाल-बच्चा बोझा होत है। तू हमनी के बोझ न है, तू तो हमरा परान है पर दूसर निकाह हो जाने से तोर नइया पार लग जाइ। अभी तो तोर जवानी भी पूरी न फूटी है। कर ले खतीजा। हमरी ऑखिन के सामने सब बच्चा सुखी रहें और का चाही’’। हम सिर झुकाये अम्मा की बात सुन रहे थे, हमरी ऑखिन से ऑसू बहते पर हम किसी को दिखाये भी न। मगर छोट बहिन बड़ी चमकी--- जाने कैसे उचक-उचक के देख ली और चिल्लाये लगी---‘‘आपा रो रही हैं---आपा रो रही हैं---’’। हम उसे ज़ोर से ऑख देखाया और हिम्मत करके बोला, ‘‘ओ जो अम्मी वो भी मर गया तो----। तीसरा निकाह पढ़वायेगी’’। ‘‘न बिटिया, एक दफा औ देख ले, बस, फिर जो तू कहेगी’’ अम्मी अपनी धुन में कहे जा रही थी। ‘‘न अम्मी एक का हाथ थामा---उमिर भर साथ रहे खातिर--वो छोड़ के चला गया---पर हम उसका साथ न छोड़े हैं। चाहे जो हो जाये। हमरे बाल-बच्चा को कोई आपन न बनायेगा! दूसरा मरद अपन बाल-बच्चा चाही कि हमनी के। हम अपने असलम के साथ सौतेला बर्ताव न होने देंगे’’
अम्मी, अब्बू, भाई-बहन, नाते-रिश्तेदार सब समझाये पर हम टस से मस न हुए मेमसाब! हम खूब काम करे लगी घर-भर का। खुद ही खाना बनाते, झाडू-पोंछा करते। अम्मी और बहनों को कोई काम न करने देते ताकि इन्हें ये न लगे कि हम इन सब पर बोझ है। पर मन में भारी भरकम बोझ हो गया था-का होगा? कैसेन होगा? कैसे असलम को पालेंगे? क्योंकि अब्बू पर हम बोझा न बनने चाहते थे। एक दिन बड़का भाई दिल्ली से आया था कुछ काम से। हम ओही के साथ लग लिए। हम कहा हियॉ रहेंगे तो कुछ न कर पावेंगे अब्बू के रहते। दिल्ली में कौन जानता है ‘देस राजा, परदेस भिखारी’ बराबर है। मेनसाब, हम असलम को लेके दिल्ली आ गये। दु महीना भाई के घर रहा फिर जैसेन हमको दु घर काम मिल गया हम अलग झुग्गी लेके रहे लगे। एक छोटी-सी झुग्गी में छोट बच्चों को लेके रहना बड़ा मुश्किल काम-सर्दी में पंखा नहीं, गरमी में रजाई-कंबल नहीं! पर मेरा भौजाई जितना हो सकता था मेरा मदद किया! हम जान गये कि अब ऐसेन दिन गुजारने पड़ेगा। दिन भर मेनसाब लोग के घर का काम करते औ रात को  अपने घर का काम करती----सोचती--- कैसेन असलम को पढ़ायेंगे, हम कुछो करें, सब कुछ बरदास्त करें लेकिन असलम को मजूरी न करने देंगे। पर ये बात सच हो गया कि मजूर का लड़का मजूर ही बनता है। हम लाख कोशिश किया मगर असलम का मन पढ़ाई में कभी न लगा। हॉ, फैसन जरूर सिर चढ़कर बोलने लगा। अब तो हम को अलग भी कर दिया है। कब्बो चैन न मिला! जिनगी भर हमको लड़ाई लड़नी पड़ी खुद से! पूरी हिम्मत से, हम लड़ते रहे ! लेकिन अब लगता है कि न लड़ते तब भी कट ही जाती। लेकिन सोचते रहे कि हर रात के बाद में सुबह होती है वैसेन एक दिन हमरा भी दिन बहुरेगा। पर कुछ भी तो न हुआ! शांति ने ऐसी खोई-खोई ऑखों से देखा जैसे बहुत थक गई है। सारी बातें करते हुए अपना चश्मा ठीक करती है और ‌फिर न जाने किस दुनिया में खो जाती है। वह बाहर से ठीक दिखती है पर अंदर से बेहद अस्वाभाविक-सी दिखती है।


 


 


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