समन्दर के
पलकों पर
कुछ बूँद क्या ठहरी
तुम विरह के गीत
गा गए,
मैं तो
नांव में बैठी रही
चाँदनी के साथ,
पकड़े हुए उसका हाथ,
अडिग रही
तुम नभ बन पछता गए,
शज़र की एक शाख
क्या टूटी
तुम अवसाद में आ गए,
मैंने
उम्रभर धरा सी
सहनशक्ति रखीं,
और
तुम गिरते पत्तों के दर्द से
चिड़चिड़ा गए..!
, अनुभूति गुप्ता