यह एक विडंबना ही है , कि मनुष्यों में जो श्रेष्ठ होते हैं , कष्ट उनके सहचर होते हैं ! वहीं सर्वश्रेष्ठों को तो कई बार असीम संत्रास के समुद्र से गुजरते हुए अक़्सर अपनी शहादत तक सुपुर्द करनी होती है !
दुनिया के सभी प्रमुख धर्मों की नींव कदाचित् इन्हीं बलिदानों की विशालता पर बसी हुई है !
इसी फेहरिस्त में सूचीबद्ध है एक नाम वो ,जो शहीदों के सरताज के नाम से ख्यात हैं ।
उल्लेख है सिख संप्रदाय के पाँचवें गुरु व प्रथम शहीद श्री गुरु अर्जुन देव का !
आपका प्रकाश 15 अप्रैल सन 1563 ई० में सिख संप्रदाय के चौथे श्री गुरु रामदास के घर माता भानी जी की कोख से उनके तीसरे सुपुत्र के रूप में हुआ ! गुरु अमरदास , बाबा बुड्ढा जैसे महान् संतों के सानिध्य में शिक्षा , संस्कार व सहिष्णुता की अतुल्य संपदा आपने आसानी से अल्प काल में प्राप्त कर ली । तत्पश्चात् , अपने सभी सुपुत्रों में सर्वश्रेष्ठ और सर्वथा उपयुक्त पाकर श्री गुरु रामदास जी ने 1 सितंबर 1581 को आपको अपनी गुरु गद्दी सौंप दी ।
गुरु गद्दी संभालते ही आपने श्री गुरु रामदास जी के द्वारा चलाए जा रहे जनकल्याण व धर्म प्रचार के कार्यों को नए आयाम और नई ऊँचाईयाँ देना प्रारंभ कर दिया । अपने सर्वधर्म समभाव की उदात्त अवधारणाओं को व्यवहारिकतापूर्ण रुप से प्रकाश में लाते हुए आपने हरिमंदिर साहिब ( वर्तमान में स्वर्णमंदिर के नाम से ख्यात ) का शिलान्यास एक मुसलमान फकीर साईं मियाँ मीर जी से करवाया ।
अपने अतुल्य संपादन क्षमता की मिसाल देते हुए भाई गुरुदास जी की सहायता से आपने गुरु ग्रंथ साहिब को 30 रागों के आधार पर जब संपादित कराया , तो क्या मुस्लिम और क्या सनातन ,बड़ी सदाशयता से संत कबीर , बाबा फरीद , भक्त नामदेव , भक्त रामानंद , संत रविदास आदि सभी तात्कालीन सिद्ध जनों की वाणी को उसमें उचित स्थान प्रदान किया ।
आपकी विनम्रता , सदाशयता , सहिष्णुता व जनसेवा का ही यह फल था कि शीघ्र ही पंजाब व इसके परित: सामान्य जनों में विकास , व परस्पर प्रेम व विश्वास की मंदाकिनी बहने लगी । सामाजिक सौहार्द व सामुदायिक सहिष्णुता की सुगंध चारों दिशाओं में फैलने लगी ।
आपकी अद्भुत तेजस्विता के बीच सिख धर्म का यह विस्तार मुगल बादशाह जहांगीर के लिए असह्य था ।
आपको और आपके पंथ को मिटा डालने के उद्देश्य से अपने मातहतों को उसने विद्वेषपूर्ण आदेश जारी किए । आपके परिवार पर हमला कर उसे लुट लिया गया । 'यासा व सियासत' के तहत आपको क़ैद कर आप पर अमानवीय अत्याचार शुरू कर दिए गए । चार दिनों तक भूखे - प्यासे रखने के बाद आज ही के दिन , 30 मई 1606 ई० को , लाहौर की भीषण गर्मी में आपको आग से गर्म लोहे के जलते तवे में बिठाकर उपर से आपकी शीश पर गर्म रेत से आपके देह को झुलसा दिया गया । इससे भी उनका जी ने भरा तो खौलते गर्म पानी में आपके बुरी तरह झुलसे उस देह को फिर से खौलाया गया ।
इस्लाम नहीं स्वीकार करने की क़ीमत आपने अपने बेमिसाल बलिदान से चुकाया !
ईश्वर से इसकी शिकायत तक न की । आपने तो यह सारा कुछ उसकी ही एक मर्ज़ी समझा और खुशी - खुशी उसके प्रेम में भाव - विह्वल हो कर उसे शुक्रिया कहते रहे ..
"तेरा कीया मीठा लागे , हरि नामु पदार्थ नानक माँगे ।"
शत्शत्नमन्
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