शिवलिंग का आध्यात्मिक स्वरूप 

 




शिवलिंग पूजा का साक्ष्य महाभारत से पूर्ववर्ती साहित्य में प्राप्त नहीं होता है। जबकि महाभारत के अनुशासन पर्व में पहली बार लिंग पूजा का उल्लेख मिलता है। सच्चिदानन्द मय ( सत चित्त+आनंद ) अद्वितीय परम ब्रह्म शिवतत्त्व है जो 'स्थल ' कहलाता है। इस स्थल की दो व्याख्या व्युत्पत्ति पर आधारित है। महत्त आदि परम ब्रह्म या शिवतत्त्व में स्थित है तथा उसी में लीन हो जाते हैं। इसमें प्रकृति एवं पुरुष से समुदभूत विश्व सर्वप्रथम स्थित होता है और सब के अंत में लय हो जाता है। अतः इसे स्थल कहते हैं , ( प्रथम भाग 'स्था ' स्थान वाचक हैं और द्वितीय भाग 'ल ' लय वाचक है। ) ।इसका नाम 'स्थल ' इसलिए भी रखा गया है कि यह समस्त चराचर जगत का आधार है और समस्त शक्तियों, समस्त प्रकाश पुंजों एवं समस्त आत्माओं को धारण करता है। वह समस्त प्राण व समस्त प्राणियों समस्त लोकों एवं समस्त संपत्तियों का आश्रय है। वह परमानंद चाहने वाले पुरुष के लिए परम पद है। अतएव वह एक तथा अद्वैत स्थल कहलाता है। दूसरी व्याख्या के रूप में 'स्थल ' का अर्थ मुख के भीतर वह अंग अथवा स्थल है , जहां से किसी शब्द का उच्चारण होता है । अपनी शक्ति में क्षोभ उत्पन्न होने पर यह ' स्थल ' दो में विभक्त हो जाता है : (1) लिंगस्थल , (2) अंगस्थल । लिंगस्थल शिव या रूद्र है तथा वह पूजनीय या उपासनीय है। ' अंग स्थल:- पूजक या उपासक जीवात्मा है। इसी प्रकार शक्ति अपनी इच्छा से स्वयं दो भागों में विभक्त होती है। एक भाग शिव पर आश्रित है एवं कला कहलाता है तथा जीवात्मा पर आश्रित दूसरा भाग भक्ति कहलाता है । शक्ति से अद्वय शिव पूजनीय बनते हैं। तथा भक्ति से जीव पूजक बनता है। अतः शक्ति लिंग या शिव में स्थित है तथा भक्ति अंग या जीवात्मा में । इसी भक्ति द्वारा जीव तथा शिव का संयोग होता है। 
लिंग साक्षात शिव है, उनका बाह्य चिन्ह (पुरुष योनि ) मात्र नहीं है। लिंग स्थल के तीन भेद हैं। (1) - भाव लिंग, (2) - प्राण, लिंग और (3)- इष्ट लिंग । भाव लिंग कलाओं से रहित है तथा श्रद्धा द्वारा देखा जा सकता है। प्राण लिंग - मनो ग्राह्य है। और इष्टलिंग सकल और निष्फल है किंतु चक्षु ग्राह्य है। वह इष्ट इसलिए कहलाता है कि समस्त इष्ट पदार्थों को वह प्रदान करता है और क्लेशों का अप नयन करता है । प्राण लिंग परमात्मा का चित्त है तथा इष्टलिंग आनंद है। इस तरह भावलिंग परम तत्व है, प्राण लिंग सूक्ष्म रूप है तथा इष्टलिंग स्थूल रूप है। तीनो लिंग आत्मा , चैतन्य एवं स्थूल रूप हैं । यह तीनो लिंग क्रमशः प्रयोग , मंत्र , एवं क्रिया से विशिष्ट होकर कला, नाद और बिंदु का रूप धारण करते हैं।
अंगस्थल --- जैसा कि पूर्व में स्पष्ट किया है कि अंगस्थल उपासक है । यह भक्ति जीवात्माओं की विशेषता है । इन्ही के अनुरूप 'अंगस्थल ' के भी तीन भाग हैं - प्रथम - योगांग , द्वितीय -भोगांग और तृतीय - त्यागांग कहलाता है । योगांग द्वारा मनुष्य शिव सानिध्य का आनंद प्राप्त करता है। भोगांग द्वारा वह शिव के साथ भोग करता है , तथा त्यागांग में क्षण, भंगुर या भ्रम रूप जगत का परित्याग करता है। योगांग का संबंध कारण में लय हो जाने तथा सुषुप्ति की स्थिति से है। भोगांग का संबंध, सूक्ष्म शरीर एवं स्वप्न से है तथा त्यागांग स्थूल शरीर एवं जागृत स्थिति से सम्बद्ध है। जीवन के प्रति समस्त अनुरुक्तियो का परित्याग, अहंकार का परित्याग तथा लिंग या शिव में पूर्णतया मन का लगा देना योगांग में सम्मिलित है। 
संक्षेप में " शिवलिंग ” का सही अर्थ है --शून्य , आकाश , अनन्त , ब्रह्माण्ड और निराकार परमपुरुष का प्रतीक । ब्रह्माण्ड में दो ही चीज़ें है पहला है एनर्जी और दूसरा पदार्थ। मानव शरीर पदार्थ से निर्मित हैं  और आत्मा ऊर्जा हैं. इसी प्रकार शिव पदार्थ और उनकी शक्तियां ऊर्जा हैं और वो दोनों मिलकर शिवलिंग बनाते हैं. 


-डॉ निरुपमा वर्मा 
एटा उत्तर प्रदेश


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