पश्चाताप के आंसू

प्रज्ञा त्रिवेदी शुक्ला


"बाबू जी यह क्या कर दिया सारा का सारा पानी खत्म कर दिया।कितनी बार आपसे कहा है कि आप जरा जल्दी उठकर चले जाया करो नहाने। यह उसी बहू की करकस आवाज थी जो कभी मधुर आवाज में बात किया करती थी जिसे सुनकर हमेशा मधुराज मन ही मन सोचा करते थे कि मेरी बहू कितनी मधुर वाणी बोलती है। सच में साक्षात लक्ष्मी का रूप है जिसे अपने घर ब्याह कर लाने पर उन्हें यह लगा था कि चलो अच्छा है घर में एक शालीन बहू है जिसके सहारे मेरा पूरा का पूरा परिवार अच्छे से चल सकता है। आज वही बहू उन्हें बात-बात पर ताने मारने लगी थी कभी उनके खाना खाते हुए खाना गिर जाने पर कभी उनके ठीक तरह से कपड़े ना बदल लेने पर कभी उनका टीवी पर आवाज तेज कर न्यूज़ देखने पर। इन सब बातों पर लगभग तंग आ चुके थे आखिरकार उन्होंने सोच लिया कि चाहे कुछ भी हो जाए अब मैं इस घर पर नहीं रहूंगा इतना सब कुछ हो जाने के बाद में शायद उनका मन भर चुका था। उन्होंने कपड़े पहने अच्छे से बालों में कंघी की और मन बना चुके थे कि अब यहां से चले जाएंगे, चुपचाप चले जाएंगे किसी को कुछ भी पता नहीं चलेगा यहां तक कि बेटे को भी अपना पता नहीं बताएंगे। सुबह नाश्ता करके निकले थे, दोपहर होने-होने तक उन्हें भूख लग आई गजब की लेकिन उन्होंने अपने आप को कंट्रोल किया और मन ही मन सोचते रहे कि नहीं, घर वापस लौट कर नहीं जाऊंगा यहीं -कहीं कुछ मैं खा पी लेता हूं। अब तो धीरे-धीरे दोपहर भी अपनी तपिश दिखाने लगी थी। पेट की आग की तरह धीरे-धीरे दोपहर की गर्मी बढ़ती ही जा रही थी । उन्हें घर की ऐसी याद आने लगी कि- जैसे ही मुझे गर्मी लगती थी फौरन मेरी बहू कमरे का एसी चला देती थी। उन्हें प्यास लगती थी तो जल्दी से ठंडा पानी ले आती थी। भूख लगने पर भी खाना फौरन हाजिर हो जाता था। लगभग हमेशा पूछ कर ही बनाती थी बाबूजी आप क्या खाएंगे? बेटा, जो हमेशा ऑफिस के काम में बिजी रहता था। वह सुबह-शाम इतना ही देखता था कि मैं ठीक हूं किसी चीज की कोई कमी तो नहीं है लेकिन बहू तो सुबह से शाम तक न जाने कितने काम किया करती थी। लगभग अचानक उन्हें ऐसा लगा कि मेरी बहू जो भी मुझे बोलती है काम के बोझ के कारण ऐसा बोलती है। उसके ऊपर जिम्मेदारियों का बोझ बेटे से कहीं ज्यादा है। कहीं ना कहीं उनको लगने लगा है उनकी पत्नी भी तो यही सब कुछ बोलती थी और पत्नी की बातें कभी भी बुरी नहीं लगीं । मधुराज की पत्नी अक्सर कहा करती थी कि तुम किसी के साथ नहीं रह सकते हो। तुम किसी के साथ रहने के लायक ही नहीं हो। तुम्हारी जो आदतें हैं ना इतनी गंदी आदतें हैं कि तुम्हारे साथ कोई रह ही नहीं सकता। मैं जैसे-तैसे तुम्हारे साथ निभाती चली आई हूं,मेरे अलावा कोई और औरत होती ना तो कब की घर छोड़कर चली गई होती लेकिन मैं हूं यह, सिर्फ यहां पर अपने बच्चों के खातिर रह रही हूं। लगभग शाम होने को आ रही थी। मधुराज को घर की याद आने लगी, उन्हें लगने लगा अगर वह घर पर इस वक्त होते तो घर पर टीवी चल रहा होता नाती पोते अगल-बगल मेरे खेल रहे होते और बहू भी गरमा गरम चाय नाश्ता लेकर आ गई होती। यह सोचकर उनकी आंखों में आंसू आ गए और वह जल्दी जल्दी घर की ओर चलने लगे। घर पहुंचने वाले ही थे कि उन्होंने देखा बहू रास्ते मैं ही मिल गई और काफी परेशान होकर बोली बाबूजी आप इतनी देर कहां थे मैं बहुत परेशान हो गई थी मुझे लग रहा था कहीं आप रास्ते में गिरी तो नहीं गए। मैं घर पर बच्चों का अकेला छोड़ कर आई हूं। कहां रहे इतनी देर तक ््? मधुराज को एक पल के लिए लगा कि जैसे उनकी बेटी ही उनको ढूंढते हुए आ रही हो। उनकी आंखों में पश्चाताप के आंसू बह गए और खुद को संतुलित करते हुए उन्होंने बहू से कहा कि बस एक पुराना दोस्त मिल गया था उसी से बात करते-करते इतनी देर हो गई।
प्रज्ञा त्रिवेदी शुक्ला


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