किस्मत से मजदूर हूँ....
सपनों के आसमान में जीती हूँ....
उम्मीदों के आँगन को सींचती हूँ....
दो वक़्त की रोटी खाने के लिए....
अपने स्वाभिमान को नहीं बेचती हूँ....
तन को ढकने के लिए....
फटा-पुराना लिबास है....
कंधों पर ज़िम्मेदारी है....
जिसका मुझे अहसास है....
खुला आकाश है छत मेरा....
बिछौना मेरा धरती है....
घास-फूस की झोपड़ी में...
सिमटी अपनी हस्ती है...
गुज़र रहा जीवन अभावों में...
जो दिख रहा प्रत्यक्ष है...
आत्मसंतोष ही मेरे...
जीवन का लक्ष्य है....
गरीबी और लाचारी से...
जूझ-जूझकर हँसना भूल चुकी हूँ....
अनगिनत तनावों से लदा हुआ....
आँसू पीकर मजबूत बनी हूँ......।।
डाॅ0 अनीता शाही सिंह...
इलाहाबाद (प्रयागराज)