उदास लम्हे हैं ,अधूरे ख़्वाब हैं ,
गम जिंदगी में बेहिसाब है ,
मजबूरियों को छिपाना और
लबों को सीना है
क्या यही जिंदगी है ?
क्या यही जीना है ?
तन्हा -तन्हा सी रहती हूँ
लोगों की भीड़ में मैं
किसी से मुलाक़ात तक भी
नहीं होती अनजाने में
काट तो दूँ पल भर में ,
मैं ये जिंदिगी मगर
अब तो वक़्त भी वक़्त
लगाता हैं बीत जाने मैं ,
न जाने कब ये
ग़मो का ज़हर पीना है
क्या यही जिंदगी है ?
शोभा खरे ''