जब कहने को कुछ रहा ही नहीं"

 


 



"दूरियां बढ़ी तो मुसलसल गलतफहमियां बढ़ी..
फिर उसने वो सुना जो मैंने कभी कहा ही नहीं,


तल्खियां ऐसी के जान लेवा, और बला सी तन्हाई..
'उफताद' ये के मेरी 'बेकसी' को वो समझा ही नहीं,


यूँ तो सह भी लेता ज़ुल्म होता अगर तन पर..
'मन' पर सितम हूया जो, था कभी सहा ही नहीं,


'पस-ऐ-हश्र' सा आलम महसूस होने लगा यारो..
फनाह हो गया मैं, पर कातिल कभी बना ही नहीं,


'जुम्बिश-ऐ-फूगां' भी नागवार रही इश्क़ में 'दीपक'
कैसी बयानगी अब, जब कहने को कुछ रहा ही नहीं"
जैैन दीपक


फताद - दुर्भाग्य
बेकसी - अकेलापन
पस-ऐ-हश्र - प्रलय के बाद स्तिथि
जुम्बिश-ऐ-फूगां - दर्द भरी हरकत या कोशिश


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