क्या दिन थे जब हम गर्मी की छुट्टियों का इन्तजार बड़ी बेसब्री से करते थे क्योंकि यही कुछ डेढ़ महीने ही तो होते थे हमारी फुलटॉस मस्ती करने के।
कुछ लोग निकल लेते थे दादी नानी के घर लेकिन हमने तो कहीं जाना ही नही था क्योंकि नानी तो हमारी कभी देखी नही और एक ही थी लाडली दादी वो हमारे साथ ही रहती थी।इसलिये कभी गाँव भी देखा नहीँ।
एक बात बोलू हम भाई-बहन जितनी मस्ती करते थे उन दिनों आज सब जाने कहाँ खो गया।
याद है मुझे जब छुट्टियां शुरू होते ही जल्दी जल्दी सारा हॉलीडेज होमवर्क कम्पलीट हो जाता था क्योंकि हमने कॉमिक्स जो पढ़नी होती थी। बाप रे कितना नशा होता थस कॉमिक्स पढ़ने का।
#नागराज और ध्रूव, #चाचा चौधरी औऱ साबू, #प्रेतात्मा,#शैतानी रात, #प्रेत अंकल और भी बहुत सारी मनोज पॉकेट बुक्स की सीरीज होती थीं। कितना मजा आता था कॉमिक्स पढ़ने में, मोहल्ले के बच्चो के साथ खेलने में। न तपती गर्मी की चुभन, न धुप की थकन और तो और बीमार होने का भी कोई चांस नहीं।
कितने ही अनजाने बच्चे एक टोली के पक्के याराने में बंध जाते थे, अगली गर्मी में नियत समय पर मिलने का वादा पहले ही हो जाता था।
हम बच्चे इन डेढ़ महीने में अपनी पूरी ज़िंदगी जी लेते थे क्योंकि हम प्रकृति की गोद में खेलते थे न की बंद कमरे में तनहा बैठकर एक मोबाइल तकनिकी के साथ।
अब तो मम्मियाँ भी कहती हैं ये लो मोबाइल जो करना है करो, बाहर गए तो मारके टाँगे तोड़ दूँगी। बेटा गली के बच्चे अच्छे नहीं हैं, उनका स्टैण्डर्ड हमसे बिलो है।
अच्छा था हमारा वो बचपन जिसमे हम बच्चे ऊँच नीच हाई लो से परे हटकर केवल अपना बचपन जीते थे, हमने ऊँच जाति का हाथ पकड़ा है या नींच धर्म का इसका तो कोई टेंशन ही नहीं था।
कितना प्यारा था वो नादान बचपन, मासूम बचपन, हमारा अपना बचपन.......
अनामिका सिंह