मर गयी संवेदनायें
झड़ गई है मानवता
चार दिन बासी गुलाब की
पंखुड़ियों सी ,
रह गया है ठूंठ उसका ,
तितलियां भ्रमरों का झुंड
फिर भी न छोडे़ उसे।
रक्त रंजित हो गया भाई चारा
पट गयी हवाएं गंध से तेजाब की
चल गयी चार सौ छूरिया किसी की देह में।
कैसा वहशी ,
कितना वहशी ,
परिमाप के स्केल भी तीतर बितर हो गये ।
हो गयी छलनी धरा ,
मां का आंचल पट गया है पत्थरों से ,
रोये जार -जार या बटोरे इन्हें ।
बिलबिला उठी हैं लाशें नालों से ,
निकल कर पुकार उठा है वो हाथ
कहने लगा कथा कोई
संभल जाओ अभी भी ,
तिलांजलि हो गयी गंगा जमुनीं तहज़ीब की ।
निकल पड़ो कि कफन बांध लो सिर पर नया
आज मैं था कल और भी होगा कोई
देख लो मानवता है कैसे खोई?
वीर सबक सिखाते हैं दुष्टों को,
कायर उनके सामने नत हो जाते हैं ।
मत सोचो कि सामने कौन है खड़ा ,
सीख कृष्ण की याद कर लो
गीता में रचा ।
युद्ध भूमि में न कोई अपना न पराया यहां ।
चाक कर दो हाथ उनके जो उठे माँ के आंचल में दाग भरने ।
कर दो कलम उनके भी सर तुम
जो तुम्हारे वतन को तिरछी नजर से देख भी ले।
-सुधा मिश्रा द्विवेदी,, कोलकाता