जब होते थे हमारे घरों के दरवाज़े ,
बहुत बड़े बड़े ...
खुले हुए छत और
खुला हुआ बड़ा सा आँगन
याद है मुझे आज भी ...
वो गौरैयों की मधुर
ची ची की आवाज़ ...
यूँ लगता था जैसे ...
बज रही हो मधुर ध्वनि घंटियों की ..
फ़ुदक फ़ुदक कर सारे आँगन में
भर जाती थीं ...
उड़ उड़ कर हमारे घरों में घुस कर
मानो हमें जगा रही हों ....
और अपनी मौज़ूदगी का ..
एहसास करातीं ....
बेधड़क मेरे चौके में भी आ जाती ...
आती कैसे नहीं ...
आख़िर वो भी तो मेरे परिवार की ही थी ...
कितना प्यारा एहसास था वो ...
छोटे बच्चे भी अपना रोना भूल कर ..
उस प्यारी गौरैया को तकने लगते ...
वैसे तो पूरे आँगन ,छत पर उन्हें ..
मिलता था ढेरों दाना चुंगने के लिए ..
फिर भी मैं अपने हांथों से चावल डाल देती ...
एक कटोरे में पानी ...
और देखती ....
झुण्ड में आते हुए गौरैया को ...
पर अब ना जाने कहाँ लुप्त गई ...
वो प्यारी प्यारी नन्ही ''गौरैया'' ...
# मणि बेन द्विवेदी