भावनाओं की कश्मकश
विचारों की गुफ्तगू
खलबली मचाते खयालात
आलोचकों को लेकर साथ
न रह पायी मौन श़ख्सियत मेरी यारों
शब्दों में पिरोकर जज्बात
मायूस अक्स के उलझते हालात
साहित्य का पाकर साथ
मैंने कविता रूपी जुगनुओं की रोशनी से रोशन की है हर व अंधेरी रात
जिसमें रोया है तू खोयी हूँ मैं
जागा है तू न सोयी हूँ मैं
"साहित्य के नशे में यूँ खो सी गयी हूँ
कि अब जो होश आया तो होश में नहीं हूँ। "
अब जब बात तलबगारों की हो ही गयी तो बता दूँ दुनिया में नशे का कारोबार बड़ा ही दूषित है। किसी को दौलत का तो किसी को शोहरत का, कहीं चिलम पीता ढांचा तो कोई मैखाने में फंसा, बात जब अपनी चली तो कुछ इस तरह हमने भी कही हां मैं होश में नहीं रहती शब्दों के कुछ जाम पी लेती हूँ जब और कहीं से आवाज़ भी सुनाई पड़ी दो -चार घूंट अधिक लेने में भी तो कोई हर्ज नहीं है दोस्त, जीने को कुछ और चाहिए था क्या? बचपन से ही अधूरापन लिए स्वयं को खोजती, अपनी ही बनाई दुनिया में रास्ता ढूँढती बेख़बर, अनबनी सी! कुछ तो रिक्त था, असन्तुष्टि का भाव लिए एक हिस्सा जि़न्दगी का जी रही थी। ज़हन में सुलगते प्रश्नों की चिनगारियाँ मुझे राख बना देतीं, इससे पहले ही साहित्य की शीतल बूंदें मेरे अस्तित्व पर ऐसी बरसीं कि बस रोम-रोम तृप्त हो गया।
खुद को साबित करने की एक जिद सी छिड़ गयी, कवयित्री का रूप धरे मैं कल्पनाओं की वास्तविकता से रूबरू होने लगी।
इतना आसान भी नहीं था लिखना शायद कुछ अपने ही इर्द-गिर्द मंडराते आलोचक, कहीं दूर बैठे मेरे शब्दों की बारीकियों पर नज़र डालते प्रशंसक शामिल रहे मेरी कविताओं की हर पंक्ति में जो रंग भरते चले गये। अब बात जो मेरी मुझसे दिलों में छपने की हुई तो कुछ यूँ थी
इतना आसान नहीं होता लिखना
छटपटाती भावनाओं को
बड़ी खूबसूरती से उकेरना पड़ता है कागज पर
तब जाकर कहीं किसी के दिल में छपता है
तो क्या बड़ी तल्लीनता से जुट गयी पारिवारिक दायित्वों को बखूबी निभाते हुए, बात तो उनके भी समझने की थी आखिर मैंने भावनाओं का कतरा-कतरा जो निचोड़ा था, अब तो साहित्य से मित्रता और गहरी हो गयी। व्यक्तित्व में निखार आने लगा, सकारात्मक परिणाम देख मैं सन्तुष्ट हुई। बीते सालों से नाराज़ गी दूर हुई, अब क्या अवनि इसी ख्वाहिश के साथ आगे बढ़ने लगी।
साहित्य रूपी नौका में बैठ
कविता की पतवार थामे
जीवन रूपी सागर पार करना है।
उमा पाटनी अवनि स्वरचित
उत्तराखण्ड पिथौरागढ़