शून्य से निकला शुन्य हूं ,शुन्य की तरफ बढ़ते जाता हूं,
अनबूझे अनसुलझे खयालों को गढ़ते जाता हूं....
शुन्य से निकला शुन्य हूं, शुन्य की तरफ बढ़ते जाता हूं
सृष्टि के संसाधनों की तरह मेरा भी कोई मोल नहीं
दुनिया वालों की नजर में मेरा कोई तोल नहीं
फिर भी; रोज नई सिढ़ी मैं चढ़ते जाता हूं
शुन्य से निकला शुन्य हूं शुन्य की तरफ बढ़ते जाता हूं
मान या सम्मान कि मुझे कोई परवाह नहीं
अच्छा कहें लोग, इसकी भी मुझे चाह नहीं
जो दे सम्मान उसको दस गुना बढ़ाता हूं
शुन्य से निकला शुन्य हूं शुन्य की तरफ बढ़ते जाता हूं
दोहरे चरित्र से दिल आहत है मेरा
आदमी आदमी बने, यही चाहत है मेरा
सब की भावना को मैं अब पढ़ते जाता हूं
शुन्य से निकला शुन्य हूं शुन्य की तरफ बढ़ते जाता हूं
छोड़ दिया विचार अब तो दूसरों को समझाने का
शौक नहीं अब सबको अपना बनाने का
अकेला ही जूल्म अब तो सहते जाता हूं
शुन्य से निकला शुन्य हूं शुन्य की तरफ बढ़ते जाता हूं
बिजेंद्र कुमार तिवारी
बिजेंदर बाबू
गैरतपुर
घोरहट मठिया
मांझी, सरण
बिहार
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