साहित्यिक पंडानामा-२२ , २३

 



 


 


           -भूपेन्द्र दीक्षित


 



"शब्द किस तरह
कविता बनते हैं
इसे देखो
अक्षरों के बीच गिरे हुए
आदमी को पढ़ो
क्या तुमने सुना कि यह
लोहे की आवाज है या
मिट्टी में गिरे हुए खून
का रंग"


लोहे का स्वाद
लोहार से मत पूछो
उस घोड़े से पूछो
जिसके मुँह में लगाम है"(धूमिल)
आज झगड़ों का मौसम  चल रहा है ।आरोप-प्रत्यारोप ,लड़ाई कुर्सी की लडाई के संग जारी है। उसकी कमीज़ मेरी कमीज से सफेद नहीं की तर्ज पर नेता भाषण दे रहे हैं। जनता जहां थी वहीं खड़ी है और कवि ,साहित्यकार  सरकारी भोंपू बने हुए हैं और अपने अपने दलों की चंपी करने में व्यस्त हैं ।
ईश्वर इनकी बुद्धि शुद्ध करें और इन्हें ज्ञान दें कि साहित्य किसी दल का पिछलग्गू नहीं होता और वह सदैव राजनीति से ऊपर है। राजनीति का मार्गदर्शक है वह। राजनीति जहां लडखडाती है, साहित्य संभाल लेता है ,तो पुरस्कारों और लोभ से परे होकर देश को देखें और साहित्य की सर्वोच्चता बनाए रखें ।
साहित्य की गरिमा को हजारों और लाखों में धूमिल न करें । आज की  अपनी बात को यहीं पर समाप्त करता हूं।


 


साहित्यिक पंडा नामा:२३


     -भूपेन्द्र दीक्षित

" वे मुस्काते फूल, नहीं
जिनको आता है मुर्झाना,
वे तारों के दीप, नहीं
जिनको भाता है बुझ जाना;


वे नीलम के मेघ, नहीं
जिनको है घुल जाने की चाह
वह अनन्त रितुराज,नहीं
जिसने देखी जाने की राह|


वे सूने से नयन,नहीं
जिनमें बनते आँसू मोती,
वह प्राणों की सेज,नही
जिसमें बेसुध पीड़ा सोती;


ऐसा तेरा लोक, वेदना
नहीं,नहीं जिसमें अवसाद,
जलना जाना नहीं, नहीं
जिसने जाना मिटने का स्वाद!


क्या अमरों का लोक मिलेगा
तेरी करुणा का उपहार?
रहने दो हे देव! अरे
यह मेरा मिटने का अधिकार!"
जब महीयसी महादेवी ने यह कविता लिखी होगी,तब आज की तरह शायद मनुष्य का यह पतन उनकी दृष्टि में रहा होगा। साहित्यकार लोकदृष्टा होता है।आज नारी सब तरह से सक्षम है,शिक्षित हैं, आत्मनिर्भर है,फिर भी नरपिशाच उसे जीने नहीं दे रहे।आज आवश्यकता है मिलिट्री कानून की।शूट एट साइट।बाकी देश का कानून कमीनों की चरागाह बना हुआ है।आज अल्पसंख्यक कौन है, पुनरीक्षण की आवश्यकता है।सरकार को वोटबैंक की राजनीति छोड़कर सख्त कदम उठाने होंगे।


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