साहित्यिक पंडा नामा:१५


 


 



                  -भूपेन्द्र दीक्षित


लोकगीत शास्त्रीय संगीत से भिन्न होते हैं । लोकगीत सीधे लोक के गीत होते है। घर, नगर, गांव के लोगों के अपने गीत होते हैं। इसके लिए शास्त्रीय संगीत की तरह   अभ्यास की जरुरत नहीं है। त्यौहारों और विशेष अवसरों पर ये गीत गाये जाते हैं। इसकी रचना करनेेवाले भी अधिकतर ग्रामीण होते हैं। हिंदी  अत्यंत समृद्ध भाषा है। पश्चिमी हिंदी के अंतर्गत खडी बोली, ब्रज, बांगरु, कन्नौजी भाषाएं आती हैं। अवधी, बघेली, छत्तीसगढी ,आदि मध्य की भाषाएं मानी जाती हैं। भोजपुरी, मैथिली, मगही पूर्व की भाषाएं हैं। उत्तर में कुमाउंनी है। बोलियों की बहुत सी उप-बोलियां हैं। सभी बोलियों और उप-बोलियों के लोकगीत अपना विशेष महत्व रखते हैं। लोकगीतों में प्राचीन परंपराएं, रीति रिवाज, धार्मिक एवं सामाजिक जीवन के साथ अपनी संस्कृति दिखाई देती है। ऐसे लोकगीतों में ऋतुसंबंधी गीत, संस्कार गीत और जातीय गीत, शादी के गीत आदि आते हैं। लोकगीत अधिकतर झांझ या ढोलक की सहायता से गाए जाते हैं। लोकगीत गाॅव और इलाकों की बोलियों में गाए जाते है। उस क्षेत्र के लोग उसे समझते हैं, यही उसकी सफलता कहीें जा सकती है। साहित्य की प्रमुख विधाओं में लोकगीतों का स्थान सर्वोपरि है।


लोकगीत लोक के गीत हैं। जिन्हें कोई एक व्यक्ति नहीं बल्कि पूरा लोक समाज अपनाता हैै। सामान्यतः लोक में प्रचलित, लोक द्वारा रचित एवं लोक के  लिए लिखे गए गीतों को लोकगीत कहा जा सकता है। लोकगीतों के रचनाकार अपने व्यक्तित्व को लोक समर्पित कर देते हैं।
डाॅ. वासुदेव शरण अग्रवाल ने लिखा है– “लोकगीत किसी संस्कृति के मुॅह बोलते चित्र हैं।
लोकगीत मन को छू लेने वाले होते हैं। लोकगीतों के लिए ज्यादातर पीलू, सारंग, दुर्गा, सावन, सोरठ आदि  राग गाते जाते हैं। कहरवा, बिरहा, धोबिया आदि ग्रामीण भागों में बहुत गाए जाते हैं।
 चैता, कजरी, बारहमासा, सावन आदि मिर्जापुर, बनारस और उत्तर प्रदेश के पूरबी और बिहार के पश्चिमी जिलों में गाए जाते हैं।  ऋतुओं के गीतों में फाग और पावस गीत अधिक पसंद किये जाते हैं। फाग गीत अधिकतर पुरुषों द्वारा गाये जाते हैं। यह गीत बसंत पंचमी से लेकर होली के पर्याय तक  गाये जाते हैं। अवधी, ब्रज, बुंदेलखंडी, छत्तीसगढी, बघेली, भोजपुरी आदि अनेक बोलियों में फाग संबंधी गीत पाए जाते हैं। पावस गीत अवधी और भोजपुरी में अधिक प्रचलित होने के बावजूद भी उपर्युक्त सभी क्षेत्रों में न्यूनाधिक मात्रा में पाए जाते हैं। संस्कार गीतों में जन्मगीत, मुंडन, जनेऊ, विवाह के गीत तो प्रायः सभी क्षेत्रों में गाए जाते हैं। मृत्यु समय के गीत भी महिलाओं द्वारा गाये जाते है। जातीय गीतों में भी पृथकता पायी जाती है। माता के द्वारा गाये जानेवाली लोरी सभी जगहों पर हम देख सकते हैं। खेलों के समय में भी लोकगीत गाये जाते है। तीसरी शताब्दी से ही प्राकृत भाषा में भी लोकगीत थे ,इसका संकेत गाथासप्तशती  से प्राप्त होता है। अपभ्रंश काल में भी लोकगीत थे।लोकगीतों के कारण ही हमारी सांस्कृतिक परंपराए बची हैं।
सामान्यतौर पर जनता से संबंधित साहित्य को ही लोकसाहित्य कहा जाता है। जनसाहित्य विशिष्ट साहित्य से पृथक हैै। किसी क्षेत्र का साहित्य यानी आदिकाल से लेकर आज तक का जो साहित्य है ,वह उस क्षेत्र का लोकसाहित्य होता है। मौखिक लोकसाहित्य अधिक पाया जाता है। उसे समेटने का कार्य कुछ वर्षों से होता हुआ दिखाई दे रहा है। लिखित रुप में लोकसाहित्य को लाने का प्रयास अधिक दिखाई दे रहा है। लोकसाहित्य में लोकगीतों का विशेष अध्ययन होता है। लोककलाओं के विभिन्न प्रकारों का अध्ययन लोकसाहित्य में पाया जाता है। लोकगीतों की प्राचीन परंपरा है। ऋग्वेद के सूक्त  भी एक प्रकार से लोकगीत ही हैं। ऋग्वेदों में जो संवादसूक्त हैं, वह एक प्रकार से लोकगीत ही हैं। लोकगीतों की परंपरा मौखिक है। आज हम इस पर चिंतन, मनन कर रहे हैं। आज उसी को कागजों पर उतारने का प्रयास लोकसाहित्य के माध्यम से हो रहा है।


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