साहिर-

 



दीप शिखा सागर



डूबती सांसों में भी इक आस की किरण आंखों में अब तक झिलमिला रही है..शायद शायद कहीं इन्हें मिल जाए दीद का एक सुनहरा लम्हा उस दुनिया तक के ख़ूबसूरत सफ़र का हमराह .... चंद वस्ल की घड़ियां जो आसान कर सकें इन टूटती धड़कनों का घिसटता परिचालन....
इंतज़ार का वो एक ठहरा हुआ लम्हा जो रूह के जनाज़े का कफ़न हो सके...खिड़की से बाहर देख रही हूँ कुछ ज़र्द पत्तों का शाख़ से टूटकर जुदा होना....
जानती हूँ ये शाख़ें तो फिर से हरी हो जाएंगी पर उन पत्तों को तो हमेशा के लिए सो जाना है धरा की गोद में...देख रही हूँ बगिया के पीले गुलाबों का झरना.....जिंदगी की एक एक साध जैसे बिखर रही है एक एक पांखुरी में...प्रेम का प्रतीक कहते थे न तुम इन्हें....देखो ये भी प्रेम की तर्ह ही मिटा रहे हैं स्वयं का अस्तित्व भी.....
रह जानी है तो केवल एक भीनी सी ख़ुश्बू हवा की सांसों में....जीवन की धड़कन बनकर..हाँ वैसे ही जैसे मेरी तुम्हारी दास्तां....धड़केगी...
किसी खंडहर होते महल की दीवार पर, सूखे हुए पेड़ के कोटर में चोंच खोले चिड़िया के बच्चों की चहचहाहट में, किसी कच्चे घड़े में नदिया के तीर, तुम्हारी ग़ज़ल में, मेरे गीतों में हाँ और मेरी मैय्यत पर मातमपुर्सी के लिए आए मित्रों की फुसफुसाहट में भी...तुम उन ग़मज़दा आंखों में भी पढ़ पाओगे एक थी अमृता...जो जीती रही अपने साहिर के लिए...मरकर भी अपने इष्ट की..... कहीं पर पुकारी जाएगी तो साहिर की अमृता ही....
अरे मैं कहाँ तक पहुंच गई....मुझे तो बस चाहिए था एक लम्हा जिसमें तुम सिर्फ़ और सिर्फ़ अमृता के कहला सको, तुम्हारी बाँहों का वो पुरसुकून घेरा जो आश्वस्त कर सके..... हाँ अमृता देखो बिना किसी बन्धन के साहिर बस तुम्हारा जन्मों जन्मों तक....
और अंधेरे में ग़र्क होती चेतना के साथ मैं तुम्हारा हाथ पकड़कर कह सकूँ....
मेरे साहिर.....अलविदा...अलविदा....अलविदा...


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