हास्य कविता

 


 


 



एकदिन के लीला सुनि लीं, घटना  भइल रहे ससुरारी में।
झगराहिन मेहरि हमार दिन बीते मारा मारी में।


एकरात सुतहीं के बेरा अइसन झगरा जोर भइल
भागलि मेहरारु हमार आ दउरत नइहर चSलि गइल


बीति गइल दुइ चार माह जब परल माघ के पाला
सेंकलस जाड़ आ जापे लगनी मेहरारु के माला


भइल गइल झगरा सलटावे चल गइनीं ससुरारी में
भेंट हो गइल मेहरारु से उहवें की बाजारी में


कहनीं कि तहरा घरहीं चल के हाथ पाँव हम जोड़बि
मउगी कहलसि बुझ लिहS आज हम बिन मरले ना छोड़बि


कसहूँ बाजार छोड़वनीं, कहनीं इहो हमरा मंजूर बा
तहरो आज बुझाइए जाई कि दिल्ली केतना दूर बा


घर जा के खूबे गोहरवनीं, मनलसि नाहिं निहोरा के
ससुरू  के बगले में हमरो भइल बिछवना बोरा के


भुइयाँ दामाद खटिया पर बुढ़ऊ हमरा तनिको ना सोभे
खटिया के नीचे ढुकनीं आ लगनीं सूई से  गोभे


आजिज भइलें बूढ़ ससुर जी भीतर से मछिया गइलन
उड़िस बता के पुचकरनीं त बुढऊ बोरा पर आ गइलन


ससुर जी बोरा पर सुति गइलन, खटिया पर हम रहनीं जागल
बोरवे पर हमके सुतल जानि मउगी दू लबदा कसि भागल


ससुरू उठि के कँहरे लगलें, हम जा के पीठिया सुहरवनीं
चुरइल हमला कइले बाटे, उनका से कहनीं, समुझवनीं


हम बोरा पर सुत गइनीं आ सुतलें ऊ चरपाई पर
मौका देखलसि मउगी आइलि दू लबदा गिरल रजाई पर


अबकी बेर त ससुरो जी के हो गइल पारा  गरम
कवन ई चुरइल सहकलि बाटे  हम एकर दवाई आज करम


लगले करे लुका के पहरा बुढ़ऊ जीव के जरले
तानि के सुतनीं  खटिया पर ऊ चुरइल के फेरा में परलें


हमके मारे मउगी आइल ऊ बेटी के चुरइल जनलें
अपने बेटी के झोंटा धइलें, लातन मुकन खनले


गउवाँ के लोगवा बटोराइल भोरहीं भइल पंचाइत
सभे कहल पहिले डँटले रहितS आज कपारे ना आइत


जब बुढ़ऊ केआँखि खुलल तब आपन भूल बतवलें
हमरे गलती बा बचपन में रहन नइखीं सिखवले


एही कारन अबले ई मर्दे के लगवलस लवना
ए बाबू घिंसिया ले जा, दिहS दू लबदा रोज उठवना


ह्रदयानन्द विशाल कहेलें जेतना बने बनावल जाला
एही से बेटा बेटी के नीमन रहन सिखावल जाला


कवि हृदयानन्द विशाल,
मुम्बई।


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